google-site-verification=V7DUfmptFdKQ7u3NX46Pf1mdZXw3czed11LESXXzpyo स्वराज पर गांधी के विचार क्या थे Skip to main content

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What is the right in the Indian constitution? Or what is a fundamental right? भारतीय संविधान में अधिकार क्या है ? या मौलिक अधिकार क्या है ?

  भारतीय संविधान में अधिकार क्या है   ? या मौलिक अधिकार क्या है ?   दोस्तों आज के युग में हम सबको मालूम होना चाहिए की हमारे अधिकार क्या है , और उनका हम किन किन बातो के लिए उपयोग कर सकते है | जैसा की आप सब जानते है आज कल कितने फ्रॉड और लोगो पर अत्याचार होते है पर फिर भी लोग उनकी शिकायत दर्ज नही करवाते क्यूंकि उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती | आज हम अपने अधिकारों के बारे में जानेगे |   अधिकारों की संख्या आप जानते है की हमारा संविधान हमें छ: मौलिक आधार देता है , हम सबको इन अधिकारों का सही ज्ञान होना चाहिए , तो चलिए हम एक – एक करके अपने अधिकारों के बारे में जानते है |     https://www.edukaj.in/2023/02/what-is-earthquake.html 1.    समानता का अधिकार जैसा की नाम से ही पता चल रहा है समानता का अधिकार मतलब कानून की नजर में चाहे व्यक्ति किसी भी पद पर या उसका कोई भी दर्जा हो कानून की नजर में एक आम व्यक्ति और एक पदाधिकारी व्यक्ति की स्थिति समान होगी | इसे कानून का राज भी कहा जाता है जिसका अर्थ हे कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नही है | सरकारी नौकरियों पर भी यही स

स्वराज पर गांधी के विचार क्या थे



गांधी न कोई दार्शनिक थे और न ही कोई राजनीतिक चिंतक । तथापि ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध संघर्ष में उसने व्यक्ति , समाज , अर्थव्यवस्था , राज्य , नैतिकता तथा कार्यपद्धति के रूप में अहिंसा पर आधारित अपने विशिष्ट विचारो का निर्माण किया। उसने राजनीति में आदर्शवाद का पुट जोड़ा और यह सिद्ध करने की कोशिश की कि नैतिकता ही राजनीति का सच्चा और एकमात्र आधार है। उसके चिंतन के अधिकतर प्रेरणास्रोत स्वदेशी थे परन्तु उसने पश्चिमी दार्शनिक चिंतन के मानवतावादी और उग्रवादी विचारो को भी आत्मसात किया। इस मिश्रण से उसने विचार और व्यवहार का एक ऐसा कार्यक्रम तैयार किया जा शुद्ध रूप से उसका अपना था।
                   गांधी का राजनीतिक और नैतिक चिंतन सरल आध्यात्मिकता पर आधारित है। उसके अनुसार यह ब्रह्माण्ड ' सर्वोच्च बौद्धिकता ' अथवा ' सत्य ' या ' इश्चर ' द्वारा संचालित होता है। यह बौद्धिकता सभी प्राणियों में निवास करती है , विशेषकर व्यक्ति में , जिसे ' आत्म चेतना ' अथवा ' आत्मा ' का नाम दिया जाता है। गांधी ने इसे आत्म - अनुशासन और अहिंसा द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति भी कहा है। दूसरे शब्दों में , माननीय परिपूर्णता केवल एक आदर्श ही नही है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति में इसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा भी होती है।


स्वराज पर गांधी के विचार

परंपरागत राजनीतिक सिद्धान्त का सम्बन्ध व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा राज्य की सत्ता के अध्ययन से रहा है। परन्तु भारतीय राजनीतिक चिंतन में यह स्वराज अथवा आत्म - शासन की धारणा रहा है जो राज्यव्यवस्था के अतंर्गत आत्म - निर्णय अथवा स्वाधीनता प्राप्त करने का तरीका है। आधुनिक युग में स्वराज शब्द का प्रयोग दादा भाई नौरोजी तथा तिलक ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के सन्दर्भ में किया। यहां इसका अर्थ सम्पूर्ण राष्ट्र से था , किसी व्यक्ति विशेष से नहीं । इसी तरह उग्रवादियों ने ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार को न्यायोचित ठहराने के लिए एक अन्य शब्द ' स्वदेशी ' का प्रयोग किया। गांधी ने स्वदेशी को स्वराज प्राप्त करने का माध्यम माना उसने व्यक्तिगत स्वशासन अथवा व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामुदायिक स्वशासन अर्थात् राष्ट्रीय स्वतंत्रता में सामंजस्य लाने की कोशिश की।
             जैसा कि उसने लिखा ' मेरे पास इंग्लिश में समझाने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। स्वराज का मूल अर्थ है आत्म - शासन। इसे अंत ; कारण का अनुशासित शासन भी कहा जा सकता है। अंग्रेजी के शब्द में  Independence अर्थात् स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं निकलता। स्वतंत्रता का अर्थ है बिना रोक टोक अपनी मनमर्जी करने की छूट। इसके विपरित स्वराज की धारणा सकारत्मक है। स्वतंत्रता नकारत्मक है.. स्वराज एक पवित्र राष्ट्र है , एक दैविक शब्द है जिसका अर्थ है आत्मशासन तथा आत्म - नियंत्रण , न कि सभी के बंधनों से मुक्ति।
             स्वराज का अर्थ व्यक्ति अथवा राष्ट्र कि ऐसी स्वतंत्रता से नहीं है जो दूसरो से कटी हुई अलग - थलग हो। यह ऐसी स्वतंत्रता  भी नहीं है जिसमें दूसरो जे प्रति नैतिक उत्तरदायित्व की अभाव है जो ऐसी ही स्वतंत्रता के दावेदार है।
             आत्मसम्मान का अर्थ आत्मनिर्भरता भी है अर्थात् एक व्यक्ति अथवा राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता स्वयं अनुभव करता है। स्वयं को स्वतंत्र अनुभव करना ओर वास्तविक स्तर पर स्वतंत्र होना एक समान नहीं है। स्वराज की धारणा से अभिप्राय है कि व्यक्ति आत्म - शासन के लिए सक्षम है अर्थात् वह इस बात की जांच करने योग्य है कि वह कब वास्तविक दृष्टिकोण से स्वतंत्र है तथा वह इसका परीक्षण दूसरो पर अपनी निर्भरता की सीमा से कर सकता है। गांधी के अनुसार उसे आज तक यह समझ में नहीं आया कि उन लोगो को , जो स्वयं को योग्य एवम् अनुभवी कहते है , दूसरो को स्वराज के अधिकार से वंचित करने में क्या मजा आता है।
             गांधी ने व्यक्ति के स्वशासन अथवा स्वतंत्रता के अधिकार को व्यक्ति की स्वायत्त नैतिक प्रकृति का अंग माना। व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार को छीनकर कोई भी समाज अपना निर्माण नहीं कर सकता। मिल की नकारत्मक स्वतंत्रता के विपरीत गांधी ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की नैतिक तथा सामाजिक अनिवार्यता पर बल दिया।




             स्वराज की एक अन्य विशेषता है कि यदि स्वतंत्रता व्यक्ति की प्रकृति का एक अंग है तो यह उसे दिया जाने वाला उपहार नहीं है। इस केवल आत्म - जाग्रति तथा आत्म - प्रयत्न द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ' दूसरे शब्दों में गांधी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के संदर्भ में सारा उत्तरदायित्व व्यक्ति पर डाल दिया। अतः गांधी की स्वराज कि धारणा के साथ जुड़ी हुई एक अन्य धारणा आत्मशुद्धि की बात की जो समाज तथा राजनीति के संदर्भ में नैतिक के स्वतंत्रता के दावे को प्रभावशाली बनाने के लिए शक्ति तथा क्षमता प्रदान करती है।
             गांधी की स्वराज की धारणा व्यक्ति एवम् राष्ट्र दोनों पर समान रूप से लागू होती है। स्वराज के लिए पहला कदम व्यक्ति से आरम्भ होता है यह एक वास्तविक सच्चाई है कि जैसा व्यक्ति जैसा राज्य। वास्तव में गांधी ने एक आत्म - चेतन व्यक्ति को वरीयता दी तथा सामूहिक इकाई का महत्व नहीं दिया । जैसा कि उसने घोषणा कि ' समुदाय के स्वराज का अर्थ है  समुदाय में रहने वाले व्यक्तियों का स्वराज ' । स्वयं पर शासन की असली स्वराज है , इसे मोक्ष अथवा मुक्ति का नाम भी दिया का सकता है। राजनीतिक स्वशासन अर्थात् समाज के बहुसंख्यक पुरुषों एवम् स्त्रियों के लिए स्वशासन व्यक्तिगत स्वशासन से बेहतर नहीं है और इसे भी ऐसे ही प्राप्त करने की आवश्यकता है जैसे व्यक्तिगत स्वशासन।
             न्यूनतम स्तर पर इसका अर्थ है उन सभी के विरूद्ध आत्म - निर्णय का प्राकृतिक अधिकार जो हमारे उपर शासन करना चाहते है तथा हमारी स्वतंत्रता को सीमित करना चाहते है। अधिकतम स्तर पर इसका अभिप्राय है हम स्वराज कि धारणा स्वयं पर लागू करते है - स्वयं को यह याद दिलाने के लिए हम यह स्वतंत्रता केवल अपनी कमजोरी के कारण ही खो सकते है , तथा बिना अनुशासन अथवा आत्म - नियंत्रण के हम इस स्वतंत्रता का गलत प्रयोग भी कर सकते है। गांधी के अनुसार स्वतंत्रता के लिए संघर्ष इसकी कीमत दिए बिना नहीं लड़े जाते।
             गांधी स्वराज की धारणा को काफी उच्च स्तर तक ले गए जब उसने घोषणा की कि स्वराज अर्थात् प्रभावी एवम् सम्पूर्ण स्वतंत्रता के लिए बाहरी हस्तक्षेप से स्वतंत्रता एक आवश्यक शर्त है परन्तु पर्याप्त नहीं क्योंकि अंततांगत्वा स्वराज स्वशासन की देन है। स्वराज का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से स्व्यात्त होने का निरंतर प्रयत्न चाहे वह सरकार विदेशी हो या राष्ट्रीय। असली स्वराज का अर्थ होगा आम जनता के पास इतनी शक्ति की वह सरकार की शक्ति के दुरुपयोग को रोक सके। भारतवासी विदेशो शासन से मुक्ति पाने के नैतिक अधिकार का प्रयोग करें , वहां वे अपनी दासता के लिए विदेशो शासकों को नहीं बल्कि अपनी कमजोरी को जिम्मेदार ठहराए। स्वतंत्र का अर्थ है देश के निम्नतम व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता ओर स्वतंत्रता केवल ब्रिटिश शासन से नहीं बल्कि सभी प्रकार की जंजीरों से। यदि उल्टे तरीके से देखे तो स्वराज व्यक्ति के आत्मज्ञान , आत्मप्रतिष्ठा तथा आत्म  - अनुशासन पर निर्भर करता है और यदि जनसाधारण में सामूहिक स्तर पर ये भावनाए वर्तमान है तो उन्होंने स्वराज प्राप्त कर लिया है। राष्ट्रीय स्तर पर स्वराज का अर्थ है आम लोगों का सामूहिक शासन - न्यायपूर्ण शासन - न कि बहुमत का शासन । यह एक ऐसी अवस्था है जहां गुंगो को जुबान मिल सके तथा अपेग चल सके। स्वराज हिंसा द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता । इसके लिए संगठन तथा एकता कि आवश्यकता है। 
             संक्षेप में , गांधी के लिए स्वराज का अर्थ था। वह व्यक्तिगत स्वराज था जिसका अर्थ था आत्मज्ञान , आत्मशासन तथा आत्मचयन । व्यापक स्तर पर यह आत्म - सुरक्षा , आत्म - आलोचना , आत्म - शुद्धि , आत्म - संयम तथा आत्मसिद्धि से भी जुड़ा हुआ था। 
             
                  

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