google-site-verification=V7DUfmptFdKQ7u3NX46Pf1mdZXw3czed11LESXXzpyo भारतीय विदेश नीति के प्रमुख निर्धारक तत्त्वों की विवेचना कीजिए ?भारतीय विदेश नीति के मूल तत्वों की विवेचना कीजिए। Skip to main content

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What is the right in the Indian constitution? Or what is a fundamental right? भारतीय संविधान में अधिकार क्या है ? या मौलिक अधिकार क्या है ?

  भारतीय संविधान में अधिकार क्या है   ? या मौलिक अधिकार क्या है ?   दोस्तों आज के युग में हम सबको मालूम होना चाहिए की हमारे अधिकार क्या है , और उनका हम किन किन बातो के लिए उपयोग कर सकते है | जैसा की आप सब जानते है आज कल कितने फ्रॉड और लोगो पर अत्याचार होते है पर फिर भी लोग उनकी शिकायत दर्ज नही करवाते क्यूंकि उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती | आज हम अपने अधिकारों के बारे में जानेगे |   अधिकारों की संख्या आप जानते है की हमारा संविधान हमें छ: मौलिक आधार देता है , हम सबको इन अधिकारों का सही ज्ञान होना चाहिए , तो चलिए हम एक – एक करके अपने अधिकारों के बारे में जानते है |     https://www.edukaj.in/2023/02/what-is-earthquake.html 1.    समानता का अधिकार जैसा की नाम से ही पता चल रहा है समानता का अधिकार मतलब कानून की नजर में चाहे व्यक्ति किसी भी पद पर या उसका कोई भी दर्जा हो कानून की नजर में एक आम व्यक्ति और एक पदाधिकारी व्यक्ति की स्थिति समान होगी | इसे कानून का राज भी कहा जाता है जिसका अर्थ हे कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नही है | सरकारी नौकरियों पर भी यही स

भारतीय विदेश नीति के प्रमुख निर्धारक तत्त्वों की विवेचना कीजिए ?भारतीय विदेश नीति के मूल तत्वों की विवेचना कीजिए।

 भारतीय विदेश नीति के प्रमुख निर्धारक तत्त्वों की विवेचना कीजिए ?


भारतीय विदेश नीति के मूल तत्वों की विवेचना कीजिए। Explain basic principles of the Foreign policy of India. 





भारतीय विदेश नीति से आप क्या समझते है?


भारतीय विदेश नीति के मूल तत्व उसके आदशों एवं उद्देश्यों में स्वयं ही स्पष्ट हो जाते हैं। 1947 के पश्चात् भारतीय विदेश नीति एक स्वतन्त्र राष्ट्र की विदेश नीति मानी जाती है। यद्यपि भारतीय विदेश नीति के प्रमुख तत्वों को 1927 के मद्रास सम्मेलन में काँग्रेस ने अपनी विदेश नीति (आगामी भविष्य में) पत्र के जरिये प्रकाशित कर दिया था परन्तु तो भी स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय विदेश नीति को स्पष्ट किया गया।


हमारे तत्कालीन प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू जिन्होंने एक लम्बे समय तक विदेश मन्त्री का दायित्व भी सम्हाल रखा था, ने प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया था कि स्वतन्त्र भारत की स्वतन्त्र विदेश नीति का प्रमुख तत्व या आकर्षण होगा गुट-निरपेक्ष रहने का। पण्डित नेहरू ने भारतीय विदेश नीति बनाते समय साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद की आलोचना करते हुये कहा था कि वे दुनिया में स्वतन्त्रता के लिये संघर्षरत राष्ट्रों को अपने देश का समर्थन देंगे।


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भारतीय विदेश नीति में शान्ति एवं शान्ति के समर्थक राष्ट्रों के साथ हर सम्भव सहयोग करने का भी निर्णय लिया गया था। भारत चाहता था (है) कि विश्व में शान्ति रहे ताकि हमारे व्यापार और उद्योगों का विकास हो। युद्ध तो विभीषिका लाते हैं. खर्चीले होते हैं और विध्वंस करते हैं, अतः इनका त्याग करके शान्ति के मार्ग पर चलना जरूरी है।


भारतीय विदेश नीति का तीसरा तत्व उपरोक्त दोनों विशेषताओं या मूल तत्वों से ही जुड़ा हुआ था। भारत के राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा तभी सम्भव हो सकती थी जबकि विश्व के राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का विकास हो तथा शान्ति की स्थापना के लिये सहअस्तित्व बहुत आवश्यक था।


सबसे महत्वपूर्ण मूल तत्व बौद्ध दर्शन से लिया गया था। पण्डित नेहरू ने पंचशील के महत्व को समझा ओर माना कि भारतीय हितों की रक्षार्थ इसका प्रयोग किया जाना चाहिये। इसी हेतु 1954 में दिल्ली यात्रा पर आये चीनी प्रधानमन्त्री चाऊ एन लाई के साथ पंचशील की घोषणा की। विश्व के अन्य राज्यों से भी पंचशील के सिद्धान्तों को अपनी विदेश नीति में सम्मिलित करने की आवश्यकता पर बल दिया। यह एक दूसरी बात है कि चीनी नीतियों के कारण पंचशील की विदेश नीति भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक और सैनिक पराजय का कारण बनी। भारतीय विदेश नीति के मूल तत्वों का यहाँ क्रमवार निम्नांकित विवेचन प्रस्तुत है- 



गुटनिरपेक्षता की नीति पर टिपण्णी :-


भारतीय विदेश नीति का उत्पादन हो गुट निरपेक्षता की मूल नीति से जोड़कर किया गया है। स्वतन्त्र भारत को एक ऐसे विश्व में कदम रखने थे जो दो गुटों में | विभाजित था। एक गुट का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका कर रहा था जिसमें पश्चिमी | राष्ट्र उसे साथ शामिल थे। दूसरे गुट का नेतृत्व सोवियत संघ के हाथों में था जिसमें पूर्वी यूरोप के कुछ राष्ट्र शामिल थे। भारतीय नेतृत्व के सामने दो मार्ग खुले हुये थे। | वह किसी एक गुट में मिलकर दूसरे का विरोधी बहुत आसानी से बन सकता था। | अथवा किसी भी गुट में न मिले और असंलग्नता की राह पर चल पड़े। नेहरू जी राष्ट्रीय हित और पहचान को समझते हुये यह निर्णय लिया कि भारत गुट-निरपेक्ष या निर्गुट या असंलग्न ही रहेगा। भारत समझ रहा था कि सैन्य गुटों की राजनीति का | अन्त एक अन्य बड़े युद्ध के द्वारा भी हो सकता है। स्वतन्त्र भारत युद्धों से दूर रहकर शान्ति और सहयोग के द्वारा राष्ट्रीय विकास करना चाहता था जो गुटों से दूर रहकर ही किया जा सकता था। विचारधारा सम्बन्धी मतभेदों से उपजा शीत युद्ध तनाव के क्षेत्र को व्याप्त बना रहा था। इस स्थिति से बचने के लिये रामबाण औषधि के रूप में निर्गुटता की नीति ही सहायता कर सकती थी। यही कारण है कि तार्किक रूप से भारत ने उपरोक्त नीति अपनायी।


भारत द्वारा गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाये जाने से यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि | क्या भारत अपना अलग गुट (तीसरा) बनायेगा? एवं यह भी कि आखिर गुट निरपेक्षता का क्या अर्थ समझा जाये? भारत ने उपरोक्त प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत कर दिया। हमारा कहना यह था कि भारत किसी गुट में शामिल नहीं होना चाहता है। इसका अर्थ साफ है तो वह गुटों की राजनीति से दूर रहना चाहता है। अतः तीसरे नवीन गुट के निर्माण का भारत का कोई इरादा नहीं दूसरा प्रश्न महत्वपूर्ण था। गुट निरपेक्षता का अर्थ स्पष्ट करते हुये कहा गया कि वर्तमान विश्व में जो दो गुट मौजूद हैं, भारत उनमें से किसी भी एक गुट में शामिल नहीं होगा। इसके बावजूद भारत दोनों ही गुटों से सम्बन्ध (मैत्रीपूर्ण) बनाये रखेगा। जो भी राष्ट्र भारत को सहायता देगा, भारत उसको बिना किसी शर्त के स्वीकार करेगा। शर्तो पर दी गयी सहायता भारत को कभी स्वीकार नहीं करायी जा सकेगी।


https://www.edukaj.in/2022/02/indias-internal-security-essay.html



गुट-निरपेक्षता के सम्बन्ध में कुछ भ्रम व्याप्त हैं, जैसे कि गुट-निरपेक्षता को तटस्थता मान लेना। भारत ने हमेशा यह कहा है कि वह न्यायपूर्ण कार्यों में सहायता देगा। बिना किसी मैदभाव के उन राष्ट्रों का विरोध करेगा जो मानवीय आचारों का उल्लंघन करेंगे। हमारी विदेश नीति विश्व समस्याओं में मुकदर्शक नहीं रहेगी। इनके सम्बन्ध में अपने खुले विचार व्यक्त करेगी तो भी असंलग्न रहेगी। गुट निरपेक्षता को तटस्थता कहना गलत है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में तटस्थता को एक स्थिति माना गया है और यह मात्र उस समय होती है जब दो राज्यों या बहुराज्यों में युद्ध चल रहा हो और राष्ट्र जब इसमें किसी भी पक्ष का न हो तो यह संक्षेप में तटस्थता को स्थिति है। गुट निरपेक्षता एक नीति है जो विश्व समस्या के प्रति स्वतन्त्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। एक गुट निरपेक्ष राष्ट्र तटस्थ हो भी सकता है और नहीं भी। यह अपने दृष्टिकोण से न्यायपूर्ण राष्ट्र का सहयोग भी कर सकता है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर अमेरिका में बोलते हुये पण्डित नेहरू ने कहा था कि यदि विश्व के किसी स्थान में न्याय की हत्या होगी, स्वतन्त्रता का अपहरण होगा या आक्रमण किये जायेंगे तो भारत तटस्थ नहीं रहेगा। यही बात भारतीय प्रतिनिधि ने संयुक्त राष्ट्र संघ में दूसरे शब्दों में दोहराई। भारतीय प्रतिनिधि ने साफ-साफ कहा हम तटस्थ राष्ट्र नहीं हैं बल्कि गुट-निरपेक्ष हैं। हमें शीत युद्ध में नहीं घसीटना है परन्तु साम्राज्यवादी आधिपत्यों के विरोधी हैं। गुट-निरपेक्षता एक सकारात्मक विदेश नीति है। हम शान्ति मैत्री, स्वतन्त्रता तथा सहयोग की नीति पर चलने वाले राष्ट्र हैं। स्वयं विकास करना चाहते हैं तथा दूसरों को विकसित होने में अपना सहयोग प्रस्तुत करना चाहते हैं।


स्विट्जरलैंड एक तटस्थीकृत राज्य है। भारत की विदेश नीति से उसकी तुलना नहीं की जानी चाहिये। उपरोक्त राष्ट्र स्थायी रूप से तटस्थ है, भारत की स्थिति इससे पूरी तरह भिन्न है।


गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति में निम्नांकित प्रमुख विशेषताएं हैं


 (1) सैनिक गुटों से पृथकता,


(2) शीत युद्ध से दूरी रखना,


(3) यह तटस्थता नहीं है,


(4) दोनों गुटों के बीच संतुलन बनाना,


(5) किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का अपने विचारानुसार निर्णय लेना। पण्डित नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की उपरोक्त विशेषताओं के अन्तिम (5th बिन्दु पर जोर देते हुये कहा कि हम किसी गुट को प्रसन्न करने के लिये अ स्वविवेक के निर्णयों को बलिदान नहीं कर सकते हैं। दूसरे के विचारों को बिना गुण-दोषों के अध्ययन को मान लेना भारतीय सरकार की नीति नहीं हो सकती है। भारतीय गुट निरपेक्षता की नीति नई विश्व समस्याओं के समग कटौती पर कसे जाने पर पूरी तरह खरी साबित हुई है। भारत ने एशिया के प्रमुख राष्ट्र का दायित्व निर्वाह करते हुये कोरिया, इण्डोनेशिया, हिन्द-चीन, इजराइल तथा मिस्र राष्ट्र की समस्याओं के निदान में एक मध्यस्थ के रूप में अपना सहयोग देने की पेशकश भी की। भारत गुटों से दूर है परन्तु राष्ट्रमण्डल का तथा यू.एन. ओ. का सदस्य है। इससे स्पष्ट है कि भारत की गुट-निरपेक्षता विश्व समस्याओं से बचने की नहीं है वस्तु उनके समाधान में सक्रिय सहयोग देने की है।


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भारतीय प्रधानमंत्री की हैसियत से पण्डित नेहरू ने गुट-निरपेक्षता की नीति को बहुत दूर दृष्टि व गम्भीर अध्ययन के पश्चात् बनायी थी। कोई भी विदेश नीति तभी सफल होती है जबकि वह अपने राष्ट्रीय हितों को घोषित कर सके। भारत अपनी भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक परम्पराओं, स्वतन्त्रता में विश्वास, आर्थिक विकास तथा अपनी अलग राजनीतिक पहचान बनाने तथा गुटों के दलदल से दूर व शीत युद्ध की बीमारी से बचने के लिये एक सर्वथा सक्रिय परन्तु शान्तिपूर्ण विदेश नीति का निर्माण किया। पूर्व तथा पश्चिम से, सामान्य सम्बन्धों से भारत को सदा लाभ मिलता रहे यही हमारी विदेश नीति का उद्देश्य था (है)। यह प्राप्त करने के लिये असंलग्नता जरूरी थी। इसलिये गुट निरपेक्षता को स्वतन्त्र, सकारात्मक, निश्चित सिद्धान्तों वाली गतिशील विदेश नीति कहा जा सकता है।


भारत की विदेश नीति में गुट निरपेक्षता अपनाने के कई कारण रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व में मास्को और वाशिंगटन की विचारधारा में अन्तर के कारण बढ़ती दूरी और शीत युद्ध के कारण टकराव की संभावित स्थितियाँ अन्तर्राष्ट्रीय तनाव व्याप्त कर रही थीं। इस स्थिति में भारत जैसे नवोदित राष्ट्र (ब्रिटिश दासता से मुक्ति के संदर्भ में) के लिये शान्ति व सहयोग की आवश्यकता थी। अतः निर्गुटता की नीति अपनाया जाना स्वाभाविक ही था। विचारधारा के महत्वपूर्ण कारण के अतिरिक्त भी कुछ कारण थे जिनकी वजह से भारत ने निर्गुटता अपनायी। यहाँ एक बार पुनः स्पष्ट करना जरूरी है कि गुट-निरपेक्षता को तटस्थता नहीं समझा जाना चाहिये। जवाहर लाल जी ने स्वयं कहा था कि तटस्थता का तात्पर्य किसी भी युद्ध के समय यह समझते हुये भी कौन राष्ट्र न्यायोचित (just) है और कौन नहीं, दोनों में से किसी का पक्ष न लेना तटस्थता है जबकि निर्गुटता में न्याय (just) और अन्याय (unjust) का भेद करके न्याय व सही का साथ देना और समर्थन करना आता है। हमारी विदेश नीति जो निर्गुटता पर आधारित है सकारात्मक गतिशीलता का विशेष गुण जिन प्रमुख कारणों से भारत ने असंलग्न रहते हुये निर्मुटता की नीति अपनायी, वे निम्नलिखित हैं रखती है।


( 1 ) भौगोलिक स्थिति-पड़ोस में चीन व सोवियत संघ जैसे साम्यवादी का होना स्वयं हिन्द महासागर में अमेरिका समेत पश्चिमी राष्ट्रों की नव-सैनिक उपस्थिति। देशों


(2) शान्ति व उन्नति-स्वतन्त्र भारत नहीं चाहता था कि गुटों और विचारधारा के टकराव का केन्द्र बने और अशान्ति और संघर्षों में फँसे। हम अपने आर्थिक व सामाजिक विकास के प्रति ज्यादा चिन्तित थे। ऐसे में किसी एक गुट से मिलना और दूसरे को नाराज करना तर्कयुक्त नहीं था।


(3) स्वतन्त्र स्थिति रखना-यदि भारत किसी एक गुट से मिल जाता तो उसके निर्णयों से सहमत या असहमत होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि गुट के निर्णय के आगे अपने राष्ट्र के निर्णय को छोड़ना होता। यह स्थिति परतन्त्रता जैसी ही रहती। स्वयं निर्णय के सिद्धान्त के कारण निर्गुटता की नीति अपनायी गयी। 


(4) दोनों गुटों से सहयोग प्राप्त करना भी भारत की आकांक्षा थी। भारत चाहता था कि दोनों गुट भारत के आर्थिक, सामाजिक व वैज्ञानिक विकास में बिना शर्त के सहयोग देते रहें।

 

(5) साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध करना-

भारत ने स्वतन्त्रता के पश्चात् साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के विरुद्ध आवाज उठाने का निर्णय किया था। यह बिना निर्गुटता के संभव नहीं होता था।


( 6 ) दोनों गुटों को मनमानी करने से रोकना-गुट निरपेक्षता की नीति के माध्यम से भारत यह चाहता था कि वह दोनों गुटों को मनमानी करने से रोकने का प्रयत्न करे। यह गुट-निरपेक्ष रहकर ही सामंजस्य स्थापित किया जा सकता था क्योंकि असंलग्न होने के कारण दोनों पक्षों की नीतियों का बिना किसी दबाव व पक्षपात के गुण-दोषों के आधार पर विवेचना करना ही गतिशील निर्गुटता है।


(7) मानवीय समस्याओं और मानवाधिकारों की समस्या को बिना गुटा विहीन हुये न तो समझा जा सकता है और न ही उठाया जा सकता है।


(8) पुराने आदर्शों जैसे शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, सबका कल्याण तथा भ्रातृत्व की भावना सिर्फ निर्गुटता से पैदा की जा सकती थी। इसीलिये भारत निर्गुटता की नीति पर चला।


https://www.edukaj.in/2022/02/indian-farmer.html



1950 और 1960 के दशक में विश्व राजनीति में भारत किस खेमे में शामिल था :- 


भारतीय विदेश नीति का दूसरा प्रमुख पहलू है शान्ति की नीति पर आधारित -सम्बन्धों को विकसित करना ताकि भारतीय हितों को सुरक्षित किया जा सके। भारत हमेशा से यही चाहती है कि विश्व राष्ट्रों में शान्ति रहे, यह समुदाय युद्ध से बचे ताकि विध्वंस के स्थान पर निर्माण हो सके।


यदि विश्व में कहीं भी युद्ध होता है तो उसका दुष्प्रभाव विश्व के हर कोने तक किसी न किसी रूप में पहुंच जाता है। स्वेज संकट के कारण व्यापार पर बुरा असर पड़ा तो अरब-इजराइल संघर्ष से गम्भीर आर्थिक हानि हुयी। कोरिया के संकट तथा वियतनाम की समस्या से विश्व का यह क्षेत्र इतना संवेदनशील हो गया कि तृतीय विश्वयुद्ध की आशंका बन गयी। इससे शान्ति व सुरक्षा की स्थिति गम्भीर हो गयी। इसके अतिरिक्त 1962 - 1965 तथा 1971 में भारत पर जो हमले किये गये उनसे हमें तथा आक्रमणकारी राष्ट्रों को भी भारी धन तथा जनहानि का सामना करना पड़ा। इससे तनाव में वृद्धि हुयी।


इराक द्वारा कुवैत को हड़प लेना और बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अमेरिकी नेतृत्व में सैन्य कार्यवाही करवाकर कुवैत को मुक्त कराने में तथा पूर्व में इराक-ईरान युद्ध से सिवाय हानि के कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। इसी तरह विश्व के अन्य भागों में समय-समय पर तनाव तथा युद्ध से इस विश्व को हानि के अतिरिक्त लाभ कुछ भी नहीं मिला।


कोई समस्या ऐसी नहीं है जिसका समाधान शान्ति से नहीं हो सकता है बात है सिर्फ हमें दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है। भारत हमेशा से विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान पर बल देता आया है। मध्यस्थता, वार्ताओं आदि से जहाँ तक सम्भव हो समस्याओं का निराकरण करा लेना चाहिये। परन्तु इसमें विपक्षी राष्ट्रों में एक-दूसरे को समझने की शक्ति जरूरी है।


भारत ने समय-समय पर इस नीति का अवलम्बन किया है। भारत में कच्छ समस्या पर ट्रिब्यूनल बनवाने की नीति स्वीकार की। इसके अतिरिक्त 1966 में ताशकन्द समझौता किया और 1965 के युद्ध में जीती हुई भूमि को वापस कर दिया। दूसरी ओर पाकिस्तान के अड़ियल रुख के कारण काश्मीर समस्या का समाधान नहीं निकल पाया है।


भारत ने 1971 के युद्ध के पश्चात् शान्ति व सद्भावना को महत्व देते हुये 1972 में शिमला समझौता किया। युद्ध-बंदियों को भी 1974 में वापस कर दिया। गया। पाकिस्तान के अतिरिक्त भारत ने पड़ोसी राज्य श्रीलंका के साथ वहाँ निवास कर रहे प्रवासी भारतीयों तथा भारत मूल के लंकावासियों के हितों को ध्यान में रखकर विभिन्न समझौते किये शान्ति बनाये रखने के लिये शान्ति सेना भेजी। समुद्री सीमा विवाद का समाधान करवाया। इसी तरह बर्मा एवं बंगलादेश के साथ भी शान्तिपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना हेतु उचित पग उठाये।


भारत ने शान्ति के लिये राजनीतिक कदमों के अतिरिक्त निःशक्तीकरण की योजनाओं तथा विचारधारा में अपना पूरा सहयोग दिया। शस्त्र प्रसार के विरुद्ध हमेशा रुख अपनाया। 1963 की आशिक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि में सहयोग किया। परन्तु जब भी भेदभाव की नीति आयी तो भारत ने इसका विरोध किया 1968 की। एन.पी.टी. को भारत भेदभाव (Discriminatory) वाली सन्धि मानता है क्योंकि यह विश्व समाज को HAVE और HAVE NOTS गुटों से बांटती है। भारत ने। संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्दर तथा बाहर विश्व शान्ति के प्रयत्नों का सर्वदा स्वागत किया है और अपना सहयोग दिया है।


भारतीय विदेश नीति का तीसरा विशेष गुण यह है कि वह मित्रता एवं शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व पर बल देती है। शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की यह धारणा हजारों वर्ष पहले से भारत में न केवल स्वीकार की गयी थी वरन् इसका प्रचार व प्रसार एक धर्म के (बौद्ध) माध्यम से भी किया गया था। इसी नीति को स्वतन्त्रेतर भारत में भी प्रधानमन्त्री पण्डित नेहरू ने विकसित किया सिद्धान्त था Friendship to all and enemeity to none. इसके अतिरिक्त जिओ और जीने दो की अवधारणा भी अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है।


https://www.edukaj.in/2020/09/india-that-efforts-towards-clean.html



विश्वबन्धुत्व का सन्देह ही विश्व मैत्री की आधारशिला है। सम्पूर्ण विश्व को अपना कुटुम्ब मानने से ही शान्ति की प्राप्ति सम्भव है। भारत की विदेश नीति के इस सिद्धान्त का सम्मेलन किया गया है। मित्रता व शान्तिपूर्ण की सहअस्तित्व की नीति का पूरी तरह से प्रयोग तभी सम्भव है जबकि विश्व के अन्य राज्य की इसे अंगीकार करे। भारत ने नेपाल, भूटान, मयनमार, बांग्लादेश, श्रीलंका से मैत्री और सहअस्तित्व पर आधारित सन्धियाँ करके इस क्षेत्र में शान्ति व मैत्री को बढ़ावा दिया है। पाकिस्तान ही एक ऐसा राष्ट्र है जो किसी भी तरह शान्ति व मैत्री नहीं चाहता है। भारत के द्वारा बार-बार प्रयत्न करने के बाद भी वह तनाव और आतंकवादी कार्यवाहियों को प्रोत्साहन देकर द्विपक्षीय सम्बन्धों को विषाक्त बनाता रहता है। यद्यपि चीन ने भी 1962 में हमारी शान्तिप्रियता और सहअस्तित्व से जुड़ी मैत्री सन्धि का अपमान करके भारत पर अग्राक्रमण किया तो भी वर्तमान समय में अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करके वह भारत के साथ द्विपक्षीय सम्बन्धों को व्यापारिक, वैज्ञानिक तथा तक्नोलॉजी के विकास में सहयोगी की नीति अपनाकर शान्ति और मैत्री की ओर पुनः मुड़ा है। पण्डित नेहरू ने भारतीय नीति को स्थापित करते हुये कहा है कि हम शान्ति के पुजारी हैं, हम किसी राष्ट्र की भूमि हड़पना नहीं चाहते हैं। सभी के साथ मिलकर जोना चाहते हैं। इसी कारण हम गुट-निरपेक्ष रह रहे हैं। शान्ति और सहअस्तित्व के दो प्रमुख सिद्धान्तों स्वतन्त्रता एवं समानता पर हमारा अडिग विश्वास है।


भारतीय विदेश नीति में विश्व समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान की नीति को अपनाने के प्रयासों को हमेशा समर्थन दिया गया है। इसके साथ ही साथ यह भी प्रयास किया जाता रहा है दोनों विरोधी सैन्य गुट एक-दूसरे को समझे और मैत्री कायम हो। हमारी नीति में हमेशा विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान की चर्चा आयी है, उस पर चलने के प्रयास किये गये हैं। चाहे ताशकंद हो या शिमला हमने पाकिस्तान को सदा माफ करने एवं शान्तिपूर्ण राह पर चलने के उदाहरण दिये हैं। भारत हमेशा से यह चाहता और मानता रहा है कि युद्ध न हो और हथियारों का उपयोग बौधत रहे। इसीलिये सिर्फ आत्मरक्षार्थ भारत शस्त्रों का प्रयोग करता है अन्यथा जितना ज्यादा से ज्यादा सम्भव हो युद्धों को टालने की कोशिश करता रहता है। शस्त्र प्रतियोगिता से बचने के लिये हर सम्भव प्रयास करता है। निःशस्त्रीकरण एवं शस्त्र नियन्त्रण के प्रति भारतीय नीति हमेशा से सकारात्मक सहयोग की ही रही है।


शान्ति, मैत्री, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, सद्भावना तथा सहयोग के मूल मन्त्रों पर ही पंचशील नीति का निर्माण किया गया था। महात्मा बुद्ध ने आज 2500 वर्षों से भी पूर्व यह कहा था कि अहिंसा-अस्तेप, ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण तथा मद का त्याग करके आचरण करने से शान्ति प्राप्ति हो सकती है। उनके बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने इसका प्रयोग करके स्वयं तथा विश्व को शान्ति का संदेश दिया।


स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् भारत की विदेश नीति में जहाँ तक सम्भव हो सका उपरोक्त आचरणों को समाहित किया गया। 1954 में भारतीय प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू के द्वारा नई दिल्ली आये हुये चीनी प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई के साथ पंचशील सिद्धान्तों की घोषणा कर दी थी। तभी से भारतीय विदेश नीति में पंचशील एक विशेष आकर्षण बन गया। पंचशील के निम्नांकित सिद्धान्त हैं


(i) राष्ट्रों में एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के प्रति भारस्परिक रूप से सम्मान और सद्भावना का होना, 


(ii) अनाक्रमण- अर्थात् अन्य राष्ट्र पर आक्रमण न करना,


(iii) हस्तक्षेप न करना- इसका तात्पर्य यह है कि राष्ट्र एक-दूसरे के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करें।


(iv) समानता की भावना राष्ट्रों के मध्य समानता की भावना होना जरूरी है। कोई भी राष्ट्र अपने को न तो बड़ा माने और न ही छोटा।


 (v) शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व इसको इस प्रकार कहा जाता है कि 'जिओ और जीने दो।' 


उपरोक्त सिद्धान्तों में सर्वप्रथम भारत ने विश्वास व्यक्त किया और उसका प्रसार किया। इसमें चीन ने प्रारम्भ में साथ दिया। भारतीय प्रयत्नों के कारण इस नीति का प्रसार एशिया तथा अफ्रीका में किया गया। ज्यादातर राष्ट्रों ने इन सिद्धान्तों को समझा व इनके महत्व को स्वीकार किया।


 1955 में पंचशील के प्रसार व विकास के सन्दर्भ में बाडुग सम्मेलन आयोजित किया गया। अप्रैल, 1955 तक वर्मा (मयनमार), कम्बोडिया, यूगोस्लाविया, नेपाल, वियतनाम एवं लाओस आदि राज्यों ने अपनी विदेश नीति में इन सिद्धान्तों को प्रयोग में लाने का निर्णय लिया। यही नहीं अफ्रीका के कई राष्ट्रों में तथा यूरोप के राज्यों में पंचशील के सिद्धान्तों का विकास हुआ। पोलैण्ड, यूगोस्लाविया, आस्ट्रिया आदि राज्यों में भी इस विशिष्ट सिद्धान्त को मान्यता प्रदान कर दी गयी। आस्ट्रेलिया महाद्वीप ने भी पंचशील के महत्व के सिद्धान्तों को स्वीकार किया। इस प्रकार पंचशील की। विचारधारा का विकास एशिया, अफ्रीका, यूरोप तथा आस्ट्रेलिया महाद्वीपों में हुआ और अन्ततः शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का विचारधारा को सोवियत संघ और अमेरिका जैसे महाबली राष्ट्रों ने स्वीकार कर लिया। इससे यह नीति विश्व में फैल गयी।


भारत में पंचशील को विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ में दिसम्बर, 1959 में प्रस्तुत कर दिया तो महासभा ने पंचशील को स्वीकार कर लिया। यह अवसर अत्यन्त महत्वपूर्ण था। पंचशील को विश्व मान्यता प्राप्त हो गयी थी। पण्डित नेहरू द्वारा प्रतिपादित इन सिद्धान्तों को यदि विश्व के राज्य सच्चे मन और कर्म से स्वीकार कर लें तो निश्चय ही यह विश्व तनाव मुक्त और युद्ध मुक्त हो सकता है। आज भी इन सिद्धान्तों का उतना ही महत्व व उपयोगिता है जितनी की प्रारम्भ में थी।


विश्व में शान्ति स्थापना मानवमात्र की आकांक्षा रही है। समय-समय पर इसको प्राप्त करने के लिये सन्धियाँ और नीति निर्देशक नियम बनाये गये हैं। इनमें लिडिल हर्ट के द्वारा प्रतिपादित शान्ति के अष्ट स्तम्भ व केलागवियाँ (पेरिस पैक्ट) का नाम लिया जा सकता है। दूसरी ओर लालच, प्रसार तथा युद्ध लोलुप मन स्थिति के कारण विश्व शान्ति को गहरा धक्का लगा है मानव की यह प्रवृत्ति ही संघर्षो का कारण है। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध रोके नहीं जा सके विल्सन के शान्ति के चौदह सूत्र बेकार हो गये।


पंचशील की भारतीय नीति भी ज्यादा दिनों तक नहीं रुक पायी। चीन ने पंचशील के सिद्धान्तों को नकारते हुये भारत के लद्दाख और नेफा क्षेत्रों पर भौगोलिक दावे करके भारतीय भूमि हड़पने की नीति अपनायी। अक्टूबर, 1962 में भारत के ऊपर विशाल पैमाने पर आक्रमण करके पंचशील की मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया।


कई भारतीय चिन्तकों, जिसमें आचार्य कृपलानी प्रमुख हैं, ने पहले ही स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि पंचशील पापपूर्ण परिस्थितियों से उपजा है अत: यह दीर्घकाल तक नहीं चल सकेगा। चाऊ एन लाई चाहते थे कि तिब्बत के मसले पर भारत चुप रहे और चीन तिब्बत को आसानी से हड़प ले। इसीलिये उन्होंने पंचशील के सिद्धान्तों पर अपनी स्वीकृति देकर कूटनीतिक लाभ उठाया और भारतीय विदेश नीति की यह एक महान् पराजय सिद्ध हुयी।


भारत और चीन जो इस सिद्धान्त के प्रर्वत्तक थे के बीच जब चीनी आक्रमण द्वारा इस पंचशील के सिद्धान्त का विनाश किया गया तो अन्य राष्ट्रों को गहरा धक्का -लगा। विश्व के अन्य राष्ट्र भी समझ गये कि आदर्श अच्छे तो होते हैं परन्तु यदि यथार्थ से दूर हट जाते हैं तो विनाशकारी परिणामों को भी जन्म दे सकते हैं। पंचशील के सहारे सोया हुआ भारत सपने में भी चीन के द्वारा भारत पर आक्रमण की सोच ही नहीं पाया और रक्षा व्यवस्था के प्रति सतर्कता में कमी आयी। इसका परिणाम यह हुआ कि हजारों वर्ग गज भारतीय भूमि आज भी चीन के हाथों में दबी पड़ी है।


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इतना सब कुछ घट जाने के पश्चात् भी भारत चाहता है कि दुनिया में शान्ति बने, मैत्री बढ़े तथा भ्रातृत्व का विकास हो। इसीलिए आज भी पंचशील के सिद्धान्त को महत्व देता है तथा विश्व राज्यों से अपने सम्बन्धों में इसका प्रयोग करने की आवश्यकता पर बल देता रहता है। भारत ने सदा प्रयत्न किये हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय तनाव कम हो। 1982-83 में भारत ने इराक-ईरान युद्ध का शान्तिपूर्ण समाधान हेतु कई सुझाव प्रस्तुत किये, लेबनान संकट के समय भारत के कूटनीतिक साधनों द्वारा हल प्राप्त करवाने की चेष्टा की, हमलावरों की निन्दा करने में जरा भी संकोच न करते हुये इजराइल द्वारा किये गये आक्रमणों की आलोचनायें कीं। दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद की आलोचना की तो दूसरी ओर अफ्रीका वासियों से हिंसा का मार्ग छोड़ने की अपीलें भी कीं। राष्ट्रों के मध्य स्वतन्त्रता और समानता के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्दर व बाहर प्रयत्न किये। 


भारतीय विदेश नीति में उपरोक्त प्रमुख तत्वों के अतिरिक्त राष्ट्रों के मध्य एकता विशेषतः अफ्रीका व एशिया में मैत्री के लिये प्रयत्न करना तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग करने की भूमिका का निर्वाह किया। भारत ने हमेशा ही विश्व समस्याओं के अन्तर्राष्ट्रीय कानून के शान्तिपूर्ण साधनों के तहत लागू करने की नीति अपनायी और अपील की कि अन्य राष्ट्रों से भी इस प्रकार शान्तिपूर्ण साधन अपनाने की मांग समय-समय पर करता आया है।


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