आज की भारतीय नारी
1. प्राचीन काल में नारी की स्थिति :-
मातृत्व की गरिमा से मंडित पत्नी के सौभाग्य से ऐश्वर्यशालिनी धार्मिक अनुष्ठानों की सहधर्मिणीही तथा गृहलक्ष्मी पुरुष सहयोगिनी शिशु की प्रथम शिक्षिका तथा अनेक गुणों से गौरवान्वित नारी के महत्व को से ही स्वीकारा गया है। महाराज मनु ने इसीलिए कहा-'यत्र नार्यस्तु पूजयंते रमते तत्र देवता'-जहाँ नारी की है, वहाँ देवता निवास करते हैं। इसमें किंचित संदेह नहीं कि नारी के अभाव में मनुष्य का सामाजिक जीवन इसीलिए प्राचीन काल से ही नारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्वीकारा गया है। नारी के इसी रूप को स्वीकार जयशंकर प्रसाद ने लिखा:
नारी तुम केवल अद्धा हो, विश्वास रजत नख पग तल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में॥
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प्राचीन भारत में गार्गी, अनुसुया, मैत्रेयी सावित्री जैसी विदुषी महिलाएँ इस बात की ज्वलंत उदाहरण है कि क काल में भारतीय नारियाँ सम्माननीय एवं प्रतिष्ठित पद पर आसीन थीं। उन्हें शिक्षा का पूर्ण अधिकार ही नहीं था कि भी शुभ एवं मांगलिक कार्य अर्धागिनी की उपस्थिति के बाद ही संपन्न होता था।
2. मध्यकाल में नारी की स्थिति:-
मध्यकाल में नारी की वह गौरवपूर्ण स्थिति नहीं रह सकी। यवनों के आक्रमण के बाद उसका मान-सम्मान पट लगा। अनेक प्रकार के राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के कारण नारी को अपनी मान-मर्यादा तथा सती को रह के लिए घर की चहारदीवारी तक ही सीमित कर देना पड़ा। उसकी स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि उसे पुरुष को स बनकर अपमान तथा यातनापूर्ण जीवन जीने पर विवश होना पड़ा।
परिस्थितियाँ सदा एक-सी नहीं रहती। शनैः शनैः नारी को पुनः प्रतिष्ठित एवं सम्माननीय पद पर आसीन करने के प्रयास शुरू हुए। राजाराममोहन राय, स्वामी दयानंद जैसे अनेक समाज-सुधारकों के सत्प्रयासों से नारी की स्थिति में परिवर्तन आया और स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक भारतीय नारी पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जीवन के हर क्षेत्र में पदार्पण करने लगी। अनेक क्षेत्रों में तो उसने पुरुष को बहुत पीछे छोड़ दिया।
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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने चाहे नारी बहुते 'अखलाड कहकर भले ही संबोधित किया हो, पर आज की नारी तो पूर्णतया सबला है। आज की नारी की दोहरी भूमिका है। वह आज घर की चहारदीवारी में बंद होकर पुरुष की दासी बनकर कंवल उसके भोग की वस्तु नहीं है, आज तो वह शिक्षा, चिकित्सा, सेना, पुलिस, उद्योग धंधे, प्रशासन जैसे अनेक क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा एवं योग्यता का परिचय दे रही है। आज यदि एक ओर वह गृहिणी है, परिवार के उत्तरदायित्व से बँधी है, तो दूसरी ओर अपने अधिकारों तथा स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए अपनी स्वतंत्र जीविका भी चला रही है। वह पुरुष प्रधान समाज में रहकर भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए हुए है।
3. आधुनिक समय में नारियाँ की दशा:-
आज की नारी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है, वह शिक्षित है तथा राजनीतिक दृष्टि से पुरुष के समकक्ष अधिकारों की अधिकारिणी है। नारी की क्षमता, योग्यता, विवेक तथा कार्य-कुशलता ने यह भली-भाँति सिद्ध कर दिया है कि नर और नारी एक समान हैं तथा नारी को किसी भी प्रकार से पुरुष से हीन और दुर्बल नहीं आँका जा सकता।आज की नारी को अपने अधिकारों का भली-भाँति ज्ञान है । परंतु नारी की दोहरी भूमिका के कारण अनेक समस्याएँ भी उठ खड़ी हुई हैं। पश्चिमी सभ्यता तथा चकाचौंध से प्रभावित होने के कारण, मानसिक तनाव तथा तलाक की घटनाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। पढ़-लिखकर नौकरी करने की के कारण आज महिलाओं को विवाह के बाद अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। महिलाओं द्वारा नौकरी आज नारी दीन-हीन नहीं सबल, समर्थ तथा स्वावलंबी है। करने तथा स्वावलंबी बन जाने के कारण पुरुष के 'अहं' को कहीं-न-कहीं' 'चोट' अवश्य पहुँचती है जिसके कारण दांपत्य इच्छा जीवन में कटुता आ जाती है। आज की नारी, पुरुष के अमानवीय व्यवहार को सहन करने को तैयार नहीं, उसे केवल बच्चों की देखभाल करना, पति को परमेश्वर समझकर उसकी उचित-अनुचित हर बात को स्वीकार करना स्वीकार्य नहीं।
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भारतीय समाज में नारी की भूमिका उसके स्थान तथा उसके कर्तव्यों को आज हमें नए परिप्रेक्ष्य में देखना, सोचना-समझना होगा। आज की नारी को पिछली स्थिति में नहीं ले जाया जा सकता। आज तो आवश्यकता इस बात की है कि एक ओर वह अपने पारिवारिक तथा सामाजिक उत्तरदायित्वों को निभाए तथा साथ ही आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनकर एक सम्मानपूर्ण जीवन भी बिताए। आधुनिक नारी को अपने अधिकारों तथा स्वतंत्रता के प्रति इतना मदांध नहीं हो जाना चाहिए कि वह ममता, सहिष्णुता, त्याग, करुणा, सेवा-परायणता, उदारता तथा स्नेह जैसे गुणों को भूलकर पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करके अपनी गरिमा को ही विस्मृत कर दे। नौकरी करते हुए उसे आदर्श माता, आदर्श पत्नी तथा गृह-स्वामिनी के कर्त्तव्यों को भली-भाँति वहन करना चाहिए|
खेद का विषय है कि स्वाधीनता के इतने वर्षों के बाद आज भी भारतीय गाँवों में नारी की स्थिति में वांछित परिवर्तन नहीं आया है। भारतीय समाज में आज भी 'लडके' को 'लडकी' से श्रेष्ठ समझा जाता है तथा अंधविश्वासों, रूढ़ियों, अशिक्षा, गरीबी तथा अज्ञानता के कारण गाँवों में उसकी दशा दयनीय है। समाज के संतुलित विकास के लिए यह आवश्यक है कि दहेज जैसी कुप्रथाओं का समूल विनाश किया जाए और नारियों के उत्थान के लिए हरसंभव प्रयास किया जाए क्योंकि राष्ट्र का विकास भी नारी की उन्नति पर ही निर्भर है।
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