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जटिल आत्मनिर्भरता के विशेष संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन के लिए नव उदावादी सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
जटिल आत्मनिर्भरता के विशेष संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन के लिए नव उदावादी सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। Complicated International relations with special reference to self-sufficiency for the neo-liberal doctrine critically examine the study.
अथवा
अंतराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन केवल उदारवादी उपागम का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
A liberal approach to the study of international relations
उदारवाद की जड़ें मुख्य रूप से 18वीं शताब्दी के प्रबुद्धवाद और 19वीं शताब्दी के राजनीतिक एवं आर्थिक उदारवाद में मिलती हैं। नव-उदारवाद, यथार्थवाद का परिष्कृत रूप है, जिसे परिष्कृत किया अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन नें। बीसवीं शताब्दी के यथार्थवादियों ने उदारवाद को आदर्शवाद का नाम दिया। उनका इस बात पर बल था, कि जहां यथार्थवाद ने विश्व का अध्ययन उस रूप में किया जैसा कि वह था तथा जैसा कि वह अब है। वहीं उदारवादियों ने कहा कि विश्व शांति के असाध्य उद्देश्य की प्राप्ति नैतिकता, अंतर्राष्ट्रीय कानून और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के द्वारा हो सकती है। यथार्थवादियों ने उदारवादियों को "स्वप्नलोकी" भी कहा क्योंकि उनके आदर्श स्वप्नमात्र और अव्यावहारिक थे।
उदारवादी नेता ओर लेखकों में सबसे अधिक लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध थे-फेनविक, जेम्स गार्नर, आलडस हक्सले और वुडरो विल्सन। उदारवादियों ने एक ऐसे संसार की कामना की जो संघर्ष और युद्धों से मुक्त होगा। इन समस्त लेखकों को आदर्शवादियों की भी संज्ञा दी गई।
1980 के दशक में उदारवाद की एक नवीन शाखा का जन्म हुआ जिसे नव-उदारवाद की संज्ञा दी गई। इस उपागम की विस्तृत समीक्षा चार्ल्स कैगले ने अपने 1993 में प्रकाशित लेख "The Neoidealist Movement" में तथा डेविड बाल्डविन की सम्पादित पुस्तक Neorealism and Neoidealism: The Contemporary Debate 1993 में की गई। नव-उदारवादी उपागम ने अंतराष्ट्रीय संस्थाओं के महत्व पर बल दिया। क्योंकि वे उन संघों को कम कर सकते हैं. जिन्हें, यथार्थवादी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में निहित संघर्ष मानते हैं, जिन्हें टाला नही जा सकता। यह उपागम इस केंद्रीय सिद्धांत पर आधारित है कि व्यक्तिगत अल्पकालीन उपलब्धियों से कहीं अधिक युक्तिसंगत यह है कि सामूहिक रूप से दीर्घकालीन उपलब्धियों के लिए प्रयास किया गया। अतः नव-उदारवाद को नव-उदारवादी को संस्थागत भी कहा जाता है। यह नया उपागम यह संकेत या सुझाव देता है कि. सरकार के अभाव में शासन संभव है।
1920 में राष्ट्र संघ की स्थापना इसलिए की गई थी कि अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान शांतिपूर्ण एवं वैज्ञानिक ढंग से दूदा जा सके। किन्तु राष्ट्र संघ का प्रयोग पूरी तरह विफल रहा। इसके पश्चात् जो अंतर्राष्ट्रीय संगठन अस्तित्व में आया, जैसे-संयुक्त राष्ट्र, जैसे क्षेत्रीय संगठन, यूरोपीय संघ, अशियान, एपेक, सार्क और अफ्रीकी संघ इत्यादि ने उदार संस्थावाद के दर्शन में आशा की एक नई ज्योति प्रज्ज्वलित की। नव-उदारवाद के पुनः स्थापित करने में मुख्य भूमिका का निर्वाह किया-रॉबर्ट ओ. कोहेन, और जोसेफ एस. नाईन 1977 में प्रकाशित अपनी एक प्रसिद्ध पुस्तक शक्ति और परस्पर निर्भरता में उन्होंने यह समझाया कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के माध्यम से सभी विकट समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं।
जॉन जेरार शुर्गा की गणना भी नव-उदारवादियों में होती है। ग्रीको ने
नव-उदारवादियों द्वारा की गई दलीलों को इस प्रकार से रेखांकित किया है, "मान लीजिए कि अंतर्राष्ट्रीय जगत में अराजकता या अव्यवस्था का बोलबाला है, जिसके कारण राज्य सरकारें आपसी सहयोग से कतराती है। फिर भी हम सहयोग की संभावना से इंकार नहीं कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, अंतर्राष्ट्रीय संगठन जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष इत्यादि विभिन्न राष्ट्रों के बीच सहयोग और मैत्रीपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देते हैं।
https://www.edukaj.in/2022/02/indias-internal-security-essay.html
नव-उदारवाद का मूल तर्क यह है कि राज्य और साथ-साथ गैर-राज्य एक्टर मिलकर सहयोग कर सकते हैं, ताकि समय-समय पर उत्पन्न होने वाली समस्याओं और संघर्षों का प्रभावी समाधान तलाश किया जा सके। इसके परिणाम स्वरूप ऐसी अंतर्राष्ट्रीय शासन पद्धतियों का जन्म होगा, जिनके द्वारा राज्यों के मध्य सहयोग में वृद्धि होगी। यह सहयोग वृद्धि जिन उपायों से सुनिश्चित होगी वे हैं-लाने-ले जाने की कीमतों में कमी, बाजार के उतार-चढ़ाव की अनिश्चितता में कमी और सहयोग को प्रोत्साहित करने वाली संस्थाओं की स्थापना अतः नव-उदारवाद का मुख्य बल अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की निश्चित संभावना पर है। वह विश्वास करता है कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तो वैश्वी समाज के भाग्य में विधाता ने तय किया हुआ है।
1970-80 के दशक में नव-उदारवादियों को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। संपूर्ण विश्व में तेल के मूल्यों में उफान था जिससे राज्यों के बजट असंतुलित होते गए। निर्धन और कमजोर राष्ट्रों द्वारा विश्वबैंक के लिए गए ऋणों में चेतहाशा वृद्धि होने लगी। दूसरे महायुद्ध के बाद अमेरिका ने नवीन मौद्रिक व्यवस्था स्थापित करने का बीड़ा उठाया था। इसका उद्देश्य राष्ट्रों के मध्य प्रोत्साहन देना था। अमेरिका, ब्रिटेन तथा अन्य विकसित देशों के प्रयासों से कई मुक्त व्यापार को मौद्रिक प्रणालियां सफलता की ओर आगे बढ़ रही थीं, पर तभी तेल संकट और विदेश व्यापार बढ़ रहे असंतुलन से स्वयं अमेरिका का बजट गड़बड़ा गया। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन ने यह घोषणा कर दी कि अमेरिका में अब नई मौद्रिक व्यवस्था के नियमों का पालन नहीं होगा।
नव-उदारवादी उपागम में निर्णय करने वाले विवेकशील होते हैं जो अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष की अपेक्षा, सहकारी आचरण को प्राथमिकता देते हैं। नव-उदारवादियों का विश्वास है कि अंततः सद्भावना पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का विकास होगा। अब राज्यों के बढ़ते सहयोग के संकेत स्पष्ट दिखाई दिए हैं। ऐसा अनेकों अंतर्राष्ट्रीय संघों और शासन पद्धतियों के उदय के कारण संभव हो पाया है।
एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम में लोकतंत्र की ओर झुकाव में वृद्धि हुई है। उदारवादी और नव-उदारवादी दोनों के अनुसार लोकतंत्र विश्व शांति की गारंटी देता है।
परस्परता यह एक आचरण अथवा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का ऐसा प्रमुख सिद्धांत है, जो केंद्रीय वैश्वी सत्ता के अभाव में भी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में सहायक होता है। अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में परस्परता के द्वारा ही अस्त्र नियंत्रण समझोतों और संयुक्त राष्ट्र शांति निर्वहन संक्रियाओं जैसे क्षेत्रों में धीरे-धीरे सुधार हुआ है। परस्परता का अर्थ है विभिन्न देश एक दूसरे के साथ एक जैसा व्यवहार और आपसी आदान-प्रदान करें। गोल्डस्टीन का कथन है कि “राजनीतिक प्रक्रियाएं और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भागीदारी दोनों के पीछे सही आचरण के नियमों संबंधी सांझी अपेक्षाएं होती हैं।"
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नव-उदारवाद का मूल्यांकन-नवउदारवाद के आलोचक नव-उदारवाद संस्थावाद की विचारधारा से सहमत नहीं हैं। यह विचारधारा आशावादी है कि इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से संघर्ष समाप्त किए जा सकेंगे और राष्ट्रों को पारस्पिरिक उपलब्धिों से समुचित शक्ति प्राप्त हो सकेगी। आलोचक इस संबंध में बिल्कुल भी आशावादी नहीं हैं। उधर नव-उदारवादियों के विचार नव-यर्थाथवादियों से भी भिन्न नजर आते हैं। क्योंकि उनके लिए तो शक्ति का प्रबंध ही सर्वोच्च मूल्य है।
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