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What is the right in the Indian constitution? Or what is a fundamental right? भारतीय संविधान में अधिकार क्या है ? या मौलिक अधिकार क्या है ?

  भारतीय संविधान में अधिकार क्या है   ? या मौलिक अधिकार क्या है ?   दोस्तों आज के युग में हम सबको मालूम होना चाहिए की हमारे अधिकार क्या है , और उनका हम किन किन बातो के लिए उपयोग कर सकते है | जैसा की आप सब जानते है आज कल कितने फ्रॉड और लोगो पर अत्याचार होते है पर फिर भी लोग उनकी शिकायत दर्ज नही करवाते क्यूंकि उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती | आज हम अपने अधिकारों के बारे में जानेगे |   अधिकारों की संख्या आप जानते है की हमारा संविधान हमें छ: मौलिक आधार देता है , हम सबको इन अधिकारों का सही ज्ञान होना चाहिए , तो चलिए हम एक – एक करके अपने अधिकारों के बारे में जानते है |     https://www.edukaj.in/2023/02/what-is-earthquake.html 1.    समानता का अधिकार जैसा की नाम से ही पता चल रहा है समानता का अधिकार मतलब कानून की नजर में चाहे व्यक्ति किसी भी पद पर या उसका कोई भी दर्जा हो कानून की नजर में एक आम व्यक्ति और एक पदाधिकारी व्यक्ति की स्थिति समान होगी | इसे कानून का राज भी कहा जाता है जिसका अर्थ हे कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नही है | सरकारी नौकरियों पर भी यही स

वनों की कमी तथा वनोन्मूलन के कारण बताइये।, वनों की कमी पर निबंध


वनों की कमी तथा वनोन्मूलन के कारण बताइये। वनोन्मूलन रोकने के लिए उपाय बताइये। Explain causes of deforestation. Give measures to check deforestation.



-वन प्राकृतिक संसाधन है तथा एक ऐसी संपदा है, जिसका उपयोग मानव आदिकाल से करता आया है और आज भी कर रहा है, किंतु आज के तकनीकी व वैज्ञानिक युग में बढ़ती जनसंख्या के दबाव और मानव की स्वार्थपरता ने इस प्राकृतिक संपदा के पर्यावरणीय महत्व को नहीं समझा तथा उसके उन्मूलन में ही प्रवृत्त हो गया। यह प्राकृतिक कारण और वन की आग भी इन्हें नष्ट करती है, परंतु यह उतनी हानिप्रद नहीं है, जितना कि मानव द्वारा वनों का विनाश है।


 वन विनाश के कारण-वनोन्मूलन अथवा वन विनाश के मुख्य कारणों को निम्न प्रकार समझाया जा सकता है


 (1) कृषि के लिये वन विनाश (Causes of Deforestation) - आज हमें विश्व में जो कृषि क्षेत्र दिखाई देता है, उसमें से अधिकांश वनों के नष्ट व साफ करके प्राप्त किया गया है। यह मानव के लिये आवश्यक भी था, क्योंकि कृषि क्षेत्रों से प्राप्त अन्न-रूपी भोजन मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है, परंतु जब जनसंख्या में निरंतर वृद्धि होने से जनसंख्या विस्फोट हुआ तो वनोन्मूलन का प्रारंभ हुआ, जो आज एक समस्या बन गया है। कृषि अवश्य होनी चाहिये, क्योंकि कृषि उपज से मनुष्यों के पेट भरते हैं, लेकिन यदि इसके लिये वनों को नष्ट तथा समाप्त किया जायेगा, तो पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और कृषि पर भी। यही नहीं अफ्रीका, एशिया तथा दक्षिणी अमेरिका में आज भी स्थानान्तरित कृषि करने के लिये वनों को जलाया जाता है, उसके बाद कृषि भूमि प्राप्त की जाती है तथा कुछ वर्षों तक वहां कृषि करके अन्य स्थानों पर पुनः यही क्रिया की जाती है। एक अनुमान के अनुसार दुनिया में लगभग 4 करोड़ वर्गमीटर क्षेत्र में बसने वाले 20 करोड़ आदिवासी इसी पद्धति से कृषि कार्य करते हैं। इस प्रकार की स्थानांतरित कृषि से होने वाली क्षति का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अकले आइवरी कोस्ट में 1956 से 1966 तक के दस वर्षों में 40 प्रतिशत वन स्थायी रूप से नष्ट हो गये। भारत में भी इसी प्रकार की खेती मिजोरम, नागालैण्ड, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश व असम में की जा रही है। एक अनुमान के आधार पर भारत में 1951-52 तथा 1987-88 के मध्य कृषि कार्य के लिए 29.7 लाख हेक्टेयर भूमि से वनोन्मूलन किया गया। इस प्रकार निरंतर बढ़ते जनसंख्या के दबाव के कारण कृषि के लिये वनों का विनाश किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में जनसंख्या वृद्धि तथा कृषि, वनोन्मूलन का एक मुख्य  कारण है।


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(2) निर्माण कार्यों हेतु वनोन्मूलन (Deforestation for Construction Work)- जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ आवासीय भूमि की अधिक आवश्यकता, उद्योगों, रेल लाइनों तथा सड़कों का विस्तार, शहरीकरण और नगरों का फैलाव तथा नदियों पर बड़े बांधों का निर्माण भी वनोन्मूलन का मुख्य कारण रहा क्योंकि भूमि का विस्तार तो सीमित है तथा अधिक क्षेत्र की आवश्यकता को वनों को समाप्त करके ही पूरा किया जा सकता है। भारत में वर्ष 1951-52 1958-86 के मध्य नदी घाटी योजनाओं के निर्माण के अंतर्गत 5.84 लाख हेक्टेयर, सड़क निर्माण कार्यो में 73000 हेक्टेयर, उद्योगों में 14.6 लाख हेक्टेयर और अन्य विविध निर्माण कार्यों हेतु 93.8 लाख हेक्टेयर भूमि से वनों को काटा गया। इसके बाद के वर्षों तो इससे अधिक वनों को नष्ट किया गया। जितने भी बड़े बांध बनाये जाता उनमें हजारों किमी का क्षेत्र जलमग्न हो जाता है तथा उसी के साथ वन भी समाप्त हो जाते हैं। बांध लाभप्रद होते हुए भी पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी विपरीत प्रभाव डालते हैं।




(3) खनिज-खनन के लिये वन विनाश-विश्व में खनिज के लिये विस्तृत भू-भाग की खुदाई की जाती है, परिणामस्वरूप उन क्षेत्रों के वन निश्चित रूप नष्ट हो जाते हैं। विश्व के अधिकांश देशों में जहां खनिजों का व्यापारिक खनन होता है, वहां के वनों के क्षेत्र में कमी आ जाती है। भारत में बिहार, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश के खनिज प्रदेश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। स्थानीय तथा क्षेत्रीय स्तर पर भी इसका प्रभाव वन विनाश के रूप में पड़ता है, परंतु खजिनों से होने वाले लाभों से अधिक होने से वनों का विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है।




(4) काष्ठ, ईंधन तथा अन्य उपयोग हेतु वन विनाश-वनों से प्राप्त लकड़ी को विविध रूप में उपयोग में लेने की मानव की प्रवृत्ति रही है तथा सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह प्रवृत्ति कम होने के स्थान पर अधिक अधिकतर से अधिकतम होती जा रही है। ईंधन के लिये वनों से प्राप्त लकड़ी का उपयोग तो मानव अग्नि के आविष्कार के समय से ही करता आ रहा है। यद्यपि विकसित देशों में अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का विकास हो जाने से ईंधन के रूप में लकड़ी का प्रयोग लगभग समाप्त हो गया है, लेकिन विकासशील देशों में ईंधन के रूप लकड़ी का उपयोग आज भी होता है तथा वह वनोन्मूलन का एक मुख्य कारण है। इसी प्रकार लकड़ी का उपयोग भवन निर्माण, जहाज, फर्नीचर, रेल के डिब्बे, रेल लाइनों के स्लीपर सेल्योलाज, कागज आदि के निर्माण के लिये भी किया जाता है। इन सबके लिए अत्याधिक मात्रा में वनों को व्यापारिक कटायी होती है।


रूस, कनाडा, स्केन्डेनेविया और उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में वन का व्यापारिक पर शोषण आज पर्यावरण संकट का कारण बन गया है। कागज, दियासलाई, भागा रबर, पेण्ट, वारनिश, रेक्कजीन, कत्था, प्लाइवुड लाख आदि वस्तुओं की प्राप्ति के लिये भी वनों को काटा जाता है। एक अनुमान के अनुसार दुनिया में लकड़ी उत्पादों से प्रतिवर्ष 2.16 करोड़ अरब रुपयों की आज होती है। इसलिए निश्चित है कि यह वनोन्मूलन का मुख्य कारण है।


अन्य कारण-उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त पशुचारण तथा औद्योगिक कच् माल के लिये भी वनों का विनाश होता है। भू-स्खलन, हिमस्खलन, वनों में लगने वाली आग जैसी प्राकृतिक आपदायें भी वनों के विनाश का कारण होती हैं। संक्षेप में वनोन्मूलन का मूल कारण मानव ईंधन, लकड़ी, उत्पादों की आवश्यकता में निरंतर वृद्धि तथा शहरीकरण, कृषि, उद्योग तथा निर्माण कार्यों में वृद्धि ही मुख्य कारण है।




वन विनाश के दुष्प्रभाव (Harmful Effects of Deforestation) बन विनाश का दुष्प्रभाव पर्यावरण अवकर्षण का मुख्य कारण है जिसके परिणाम तात्कालिक ही नहीं वरन् दूरगामी भी होते हैं, जो अंत में मानव सभ्यता के लिये संकट का कारण बन सकते हैं। वनोन्मूलन के दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं


1. जलवायु का असंतुलित होना-वन जलवायु में नियंत्रक होते हैं अर्थात् वन आर्द्रता में वृद्धि करते हैं, वर्षा में सहायक होते हैं और तापमान को नियंत्रित रखते हैं। जैसे वनों का विनाश होता है वायुमंडल में नमी की कमी हो जाती है तथा परिणामस्वरूप वर्षा की मात्रा में निरंतर कमी होती जाती है, तापमान में वृद्धि होने लगती है, शुष्कता का विस्तार होता है अर्थात् मरुस्थलीकरण का विकास प्रारंभ हो जाता है। धार के मरुस्थल का एक कारण वनोन्मूलन भी है। वन विनाश से कार्बन व नाइट्रोजन चक्रों का क्रम भंग हो जाता है। वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया स्थिर रहती है, परंतु पिछले 100 वर्षों में लगभग 24 लाख टन ऑक्सीजन वायुमंडल में समाप्त हो चुकी है तथा 36 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस की वृद्धि हो चुकी है। इस प्रकार वनोन्मूलन में जलवायु असन्तुलित हो जाती है।





2. वन्य जीवों का विनाश-वर्तमान संसार में वनोन्मूलन से अनेक वन्य जीव-जंतु विलुप्त हो गये हैं और उनकी अनेक प्रजातियों को संख्या में कमी आ गयी है। वन्य जीवों के शिकार व वनोन्मूलन में ईसा संवत् के प्रारंभ में अब तक भारत | में लगभग 200 जन्तु एंव पक्षी जातियां नष्ट हो चुकी है तथा 250 प्रजातियां विनाश के कगार पर है। इनमें से कुछ प्राणी हैं-शेर, चीतल, कृष्णसार, गिरसिंह, मगर, चीता, नीलगाय, सरंग, श्वेत सारस, साइबेरियन सारस, ध्रुवीय भालू, बारहसिंगा, धूसर, बगुला, भूज आदि। हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों में अनेक पादप प्रजातियां भी गंभीर रूप से प्रभावित हुई हैं। इनमें से मुख्य एंजिया, कोआ, सोशार्ड, आर्किडम, बैलेनोफोराड्रन्टोल्युफेटा, डाई ऑस्कोरिया आदि।


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3. मृत अपरदन में वृद्धि-बन मृदा के संरक्षक होते हैं अर्थात् वृक्षों की जड़े भूमि को जकड़े रहती हैं, जिससे वह संगठित बनी रहती है तथा मृदा अण्पदन नियंत्रित रहता है। दूसरी ओर वनों के वृक्षों के कट जाने से मृदा अपरदन अधिक हो जाता है। हिमालय पर्वत के निचले ढ़ालों पर वनों के निरंतर काटे जाने से यह समस्या अर्थात् मृदा अपरदन की समस्या अधिक बढ़ गयी है। इसी प्रकार वनीय वनस्पति के अभाव में मरुस्थलीकरण तीव्रता से विकसित हो जाता है।


4. प्राकृतिक जल स्रोतों का सूखना एवं जल स्तर का गिरना- वनों के विनाश में अनेक प्राकृतिक जल स्रोत समाप्त होते जा रहे हैं तथा इसके परिणामस्वरूप भूमिगत जल स्तर नीचे जा रहा है। वर्षा की कमी तथा तापमान में वृद्धि तथा सूत्रों द्वारा वाष्पीकरण रोकने की प्रक्रिया समाप्त होने से वनोन्मूलन का यह दुष्प्रभाव बड़ रहा है।



उपर्युक्त दुष्प्रभावों के अतिरिक्त पशुचारण क्षेत्रों की कमी, मनावोपयोगी अन्य वस्तुओं की कम उपलब्धि, औषधियों की कमी, प्राकृति सुरम्यता में कमी, प्रदूषण की वृद्धि, मरुथलीकरण की वृद्धि, बंजर भूमि का विकास, आदिवासी जातियों के आवास की समस्या आदि प्रभाव भी वन विनाश के कारण है। वास्तव में वन पारिस्थितिक तंत्र को परिचालित करते हैं तथा पर्यावरण को नियंत्रित रखते हैं एवं अमूल्य प्राकृतिक संपदा है, इनका उन्मूलन अनेक आपदाओं को निमंत्रण देना है। इसलिए वनोन्मूलन के दुष्प्रभावों को देखते हुए वनों का अतिदोहन तथा वनोन्मूलन को रोकने के उपाय करना अत्यंत आवश्यक है।



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