google-site-verification=V7DUfmptFdKQ7u3NX46Pf1mdZXw3czed11LESXXzpyo मानव अधिकार (HUMAN RIGHTS) Skip to main content

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What is the right in the Indian constitution? Or what is a fundamental right? भारतीय संविधान में अधिकार क्या है ? या मौलिक अधिकार क्या है ?

  भारतीय संविधान में अधिकार क्या है   ? या मौलिक अधिकार क्या है ?   दोस्तों आज के युग में हम सबको मालूम होना चाहिए की हमारे अधिकार क्या है , और उनका हम किन किन बातो के लिए उपयोग कर सकते है | जैसा की आप सब जानते है आज कल कितने फ्रॉड और लोगो पर अत्याचार होते है पर फिर भी लोग उनकी शिकायत दर्ज नही करवाते क्यूंकि उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती | आज हम अपने अधिकारों के बारे में जानेगे |   अधिकारों की संख्या आप जानते है की हमारा संविधान हमें छ: मौलिक आधार देता है , हम सबको इन अधिकारों का सही ज्ञान होना चाहिए , तो चलिए हम एक – एक करके अपने अधिकारों के बारे में जानते है |     https://www.edukaj.in/2023/02/what-is-earthquake.html 1.    समानता का अधिकार जैसा की नाम से ही पता चल रहा है समानता का अधिकार मतलब कानून की नजर में चाहे व्यक्ति किसी भी पद पर या उसका कोई भी दर्जा हो कानून की नजर में एक आम व्यक्ति और एक पदाधिकारी व्यक्ति की स्थिति समान होगी | इसे कानून का राज भी कहा जाता है जिसका अर्थ हे कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नही है | सरकारी नौकरियों पर भी यही स

मानव अधिकार (HUMAN RIGHTS)

 मानव अधिकार

(HUMAN RIGHTS)



मानव अधिकारों का क्या अर्थ है?


 मानव अधिकारों के अंतर्गत वे अधिकार शामिल हैं जो कि सभी व्यक्तियों को मिलने चाहिएँ। वंश, वर्ण, लिंग, मज़हब, जाति या राष्ट्रीयता के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।



.'मानव अधिकार' विषय अब बहुत लोकप्रिय हो चुका है। परंतु इन अधिकारों के अंतर्गत जिन सुविधाओं, शक्तियों और माँगों की चर्चा की जाती है, उनकी उपज बहुत पहले ही हो चुकी थी। मानव अधिकारों के पीछे यह भावना काम करती है कि 'मानव गरिमा' (human dignity) की रक्षा की जाए। देखा जाए तो इस भावना का जन्म पृथ्वी पर मनुष्य के विकास के साथ ही हुआ, क्योंकि गरिमा के बिना न तो जीवन-यापन ही संभव था और न मनुष्य सभ्यता व संस्कृति का विकास कर सकता था। लेकिन इसके साथ ही अधिकारों के दमन का सिलसिला भी शुरू हो गया था, क्योंकि दूसरों का शोषण करके अपने प्रभुत्व को बढ़ाना भी मानव की एक सहज वृत्ति रही है। इसलिए अनाचार और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष की कहानी भी हजारों साल पुरानी है। भारत में जब बुद्ध और महावीर ने जाति प्रथा को अन्यायपूर्ण ठहराया तब वे मनुष्य की समानता के अधिकार को ही मान्यता दे रहे थे। मीरा का संघर्ष स्त्री-अधिकारों की स्थापना का ही एक महान् प्रयास था। 20वीं सदी पार करके हम 21वीं सदी की दहलीज में पाँव रख चुके हैं, पर मानव अधिकारों को लागू कराने के लिए हमें आज भी संघर्ष करना पड़ता है।



मानव अधिकारों का क्या अर्थ है ?

(What is meant by Human Rights ? )


मानव अधिकारों के अंतर्गत वे स्वतंत्रताएँ और अधिकार शामिल हैं जो कि सभी व्यक्तियों को मिलने चाहिएँ वंश, वर्ष लिंग, भाषा, मजहब, जाति, राष्ट्रीयता या अन्य किसी आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। इस प्रकार 'सर्वव्यापकता' (universality) मानव अधिकारों का प्रथम विशेष लक्षण है। दूसरा प्रमुख लक्षण है—‘सर्वोपरिता' (paramountey) अर्थात् अधिकारों का स्थान सबसे ऊँचा है। यदि कोई व्यक्ति या संस्था इनसे ऊपर हुई वे फिर इनका इस्तेमाल कैसे होगा? वह तो इन पर मनमाने प्रतिबंध लगाएगा। अंतिम महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अधिकारों से ‘लागू कराने' (implementation) की व्यवस्था होनी चाहिए।


कुछ प्रमुख मानवाधिकार इस प्रकार हैं-जीवन और दैहिक सुरक्षा का अधिकार (right to life and security of person), शिक्षा का अधिकार (right to education), संपत्ति का अधिकार (right to own property), कानून के समझ समानता (equality before the law) तथा अन्य बहुत सी स्वतंत्रताएँ । मानव अधिकार संबंधी वियना घोषणा (Vienna Declaration) में यह कहा गया है कि “मानव अधिकार व स्वतंत्रताएँ सर्वमान्य हैं और प्रश्नों से परे हैं।" व्यक्ति की मूलभूत माँगें मानते हुए प्रत्येक राज्य को चाहिए कि इन्हें एक “पैकेज” (package) के रूप में स्वीकार करे और उनके "संरक्षण व प्रोत्साहन" (protection and promotion) पर ध्यान दे।





मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (UNIVERSAL DECLARATION OF HUMAN RIGHTS)


फ्रेंच राज्यक्रांति के बाद फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने 12 अगस्त 1789 को 'मनुष्य के अधिकारों' (Rights of Man) की घोषणा की। इस अधिघोषणा का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय टॉमस पेन (Thomas Paine) ने सर्वप्रथम 'मानव अधिकारों' (Human Rights)—इन शब्दों का प्रयोग किया था। परंतु मानव अधिकारों पर उन्होंने जो पुस्तक लिखी उसका शीर्षक 'मनुष्य के अधिकार' (The Rights of Man) रखा गया।


प्रथम महायुद्ध (1914-18) के बाद यूरोप के कई देश लोकतंत्रीय प्रणाली को छोड़कर तानाशाही की ओर अग्रसर हुए। तानाशाही का सबसे ज्यादा उग्र रूप इटली और जर्मनी में प्रकट हुआ। इटली में इसे फासिस्टवाद और जर्मनी में नाजीवाद का नाम दिया गया। नाजी जर्मनी और फासिस्ट इटली दोनों ने दमन और हिंसा का सहारा लिया। इन देशों में हजारों-लाखों लोगों को बिना मुकदमा चलाए नजरबंदी शिविरों में रखा गया। वहाँ उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी जाती थीं।


नाजियों ने यहूदियों पर बेहद अत्याचार किए। द्वितीय महायुद्ध के दौरान मानव अधिकारों को बेरहमी से पैरों तले रौंदा गया। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में संयुक्त राष्ट्र के जो उद्देश्य बतलाए गए उनमें एक उद्देश्य यह भी है, “मानव अधिकारों के प्रति सभी राष्ट्र फिर से अपनी निष्ठा की अभिपुष्टि करें" (to reaffirm faith in fundamental hurman rights) 1946 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा श्रीमती ऐलीनार रूजवेल्ट (Eleanor Roosevelt) की अध्यक्षता में मानव अधिकार आयोग की स्थापना की गई। श्रीमती रूजवेल्ट जो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रँकलिन रूजवेल्ट की पत्नी थीं, मानव अधिकारों के क्षेत्र में अपनी सक्रियता के लिए विख्यात थीं। इस आयोग ने मौलिक अधिकारों का जो मसौदा तैयार किया, संयुक्त राष्ट्र कई के सदस्यों ने उसकी अभिपुष्टि कर दी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को मानव अधिकारों की सार्वभौम सूोषणा की। इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव अधिकारों की सुरक्षा का भार औपचारिक रूप से अपने कंधों पर ले लिया।


मानव अधिकार (Human Rights)


मानव अधिकारों की घोषणा में कुल 30 अनुच्छेद हैं, जिनमें पाँच तरह के अधिकारों का वर्णन है : 


1. नागरिक अधिकार (Civil Rights)-इन अधिकारों में मुख्य-मुख्य इस प्रकार हैं-(i) विधि के समक्ष समता का अधिकार (all are equal before the law) जन्म से सभी मानव समान हैं। वंश, वर्ण, लिंग, भाषा, राष्ट्रीयता और धार्मिक भेदभाव के बिना प्रत्येक व्यक्ति समान अधिकारों का हकदार है, (ii) जीवन, स्वतंत्रता, तथा शरीर की सुरक्षा का अधिकार, (ii) दासता (slavery) से मुक्ति तथा गुलामों की खरीद और विक्री का निषेध, (iv) मनमाने ढंग से गिरफ्तारी, नजरबंदी और देश से निकाले जाने का निषेध, तथा (v) विचार, अंतःकरण और धर्मपालन की स्वतंत्रता


2. राजनीतिक अधिकार (Political Rights) इनमें मुख्य अधिकार इस प्रकार हैं-(i) देश के शासन में भाग लेने और सरकारी नौकरियों पाने का अधिकार, (ii) राष्ट्रीयता (nationality) का अधिकार अर्थात् किसी को भी मनमाने ढंग से राष्ट्रीयता से दचित नहीं किया जाएगा, तथा (ii) “शासन की सत्ता का आधार जनता की इच्छा होगी" (will of the people shall be the basis of the authority of government)। जनता की इच्छा को जानने का सर्वोत्तम साधन बालिग मताधिकार पर आधारित समय-समय पर होने वाले चुनाव हैं।


3. आर्थिक अधिकार (Economic Rights) - इनमें मुख्य अधिकार इस प्रकार हैं-(i) संपत्ति रखने का अधिकार, (i) ऐसे आर्थिक और सामाजिक अधिकार जो व्यक्ति के विकास के लिए अनिवार्य हैं, (iii) काम का अधिकार और समान कार्य के लिए समान वेतन। इसमें विश्राम और अवकाश का अधिकार तथा ट्रेड यूनियनें (श्रमिक या व्यावसायिक संघ) बनाने का अधिकार भी शामिल है, तथा (iv) बेरोजगारी की दशा में सामाजिक सुरक्षा (social security) का अधिकार ।


4. सामाजिक और पारिवारिक अधिकार (Social and Domestic Rights) - इनमें मुख्य रूप से ये अधिकार शामिल हैं-(i) विवाह करने और घर बसाने का अधिकार। विवाह दोनों पक्षों (पुरुष एवं स्त्री) की पूर्ण सम्मति से किया जाएगा, (i) कुटुम्ब समाज की प्राथमिक इकाई है, जिसे राज्य और समाज का पूर्ण संरक्षण मिले, तथा (iii) शिक्षा का अधिकार। कम-से-कम प्राथमिक स्तर पर शिक्षा निःशुल्क होगी। शिक्षा का लक्ष्य मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास और मानव अधिकारों के प्रति सम्मान की भावना जगाना है।


5. सांस्कृतिक अधिकार (Cultural Rights ) - प्रत्येक व्यक्ति को समाज के सांस्कृतिक जीवन में मुक्त रूप से भाग लेने, कलाओं का आनन्द लेने और वैज्ञानिक प्रगति के फायदों में हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार है।

        घोषणापत्र के अंत में यह भी कहा गया है, “प्रत्येक व्यक्ति के उस समुदाय के प्रति कर्त्तव्य हैं, जिसमें उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास संभव है।” नैतिकता, सार्वजनिक व्यवस्था और जनकल्याण की दृष्टि से इन स्वतंत्रताओं के प्रयोग पर मर्यादाएँ (limitations) लगाई जाएँगी।




मानव अधिकारों की प्रकृति और लक्षण (Nature and Features of the Human Rights)


1. मानव अधिकार इस नींव पर आधारित हैं कि 'मानव गरिमा' (human dignity) की रक्षा की जाए।


 2. “मानव अधिकार व स्वतंत्रताएँ सर्वमान्य हैं और प्रश्नों से परे हैं (The universal nature of Human Rights beyond question) अर्थात् ये अधिकार सभी लोगों के लिए हैं और सभी कालों और हर परिस्थिति में इन्हें लागू किया जा हालाँकि कुछ एशियाई देशों (चीन, ईरान, इण्डोनेशिया व उत्तरी कोरिया) ने कई मानव अधिकारों के प्रति अपनी असहमति प्रय की है, पर शेष अधिकारों को उन्होंने भी स्वीकार किया है।


3. मानव घोषणापत्र में सिर्फ नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की ही चर्चा नहीं की गई, इनमें आर्थिक और सामाजि अधिकार भी शामिल हैं। पश्चिम के उदार लोकतांत्रिक देशों ने पहली बार यह स्वीकार किया कि सामाजिक-आर्थिक अधिकार को वैसी ही तरजीह दी जाए जैसी नागरिक स्वतंत्रताओं को दी जाती है।


4. मानव अधिकार 'अविभाज्य और एक-दूसरे पर निर्भर' (indivisible and interdependent) हैं। इसलिए अच्छा पह होगा कि सभी राज्य इन्हें एक 'पैकेज' के रूप में स्वीकार करें और उन्हें संरक्षण दें। अभिप्राय यह है कि 'लोकतंत्र और विकास (democracy and development) दोनों ही हमारे वांछित लक्ष्य होने चाहिएँ। नागरिक राजनीतिक अधिकारों से 'लोकतंत्र' को बल मिलेगा और सामाजिक-आर्थिक अधिकार 'विकास' को बढ़ावा देंगे।


5. एक दृष्टि से देखा जाए तो इन अधिकारों ने राज्य प्रभुसत्ता (state sovereignty) के सिद्धांत को थोड़ा पिचका दिया है। अब यदि किसी राज्य में महिलाओं, अल्पसंख्यकों अथवा किन्हीं विशेष जातियों प्रजातियों के प्रति बुरा व्यवहार होता है तो उस राज्य की अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में बदनामी होगी। उसे यह स्पष्टीकरण देना होगा कि वह मानवाधिकारों की रक्षा क्यों नहीं। कर पाया ।


मानव अधिकारों का महत्त्व

(Significance of Human Rights)


उपरोक्त वर्णन से मानव अधिकारों का महत्त्व स्पष्ट हो गया होगा। फिर भी इस संबंध में हम निम्नलिखित तथ्यों को रेखांकित करना चाहेंगे :


1. मानव अधिकारों का उल्लंघन किसी भी राष्ट्र का अंदरूनी मामला नहीं है (Violation of Human Rights not an internal affair of a Sovereign Nation)- एक लंबे असे तक यह धारणा बनी रही कि राज्य अपने नागरिकों को कैसे रखता है अथवा उनके साथ किस तरह का व्यवहार करता है, यह उस राज्य का अंदरूनी मामला है ;  इससे बाहरी ताकतों का कुछ लेना देना नहीं है। पर फासिस्ट ताकतों के अमानवीय और क्रूर कृत्यों से लोग घबरा गये ।  राजनीतिक बंदियों  को पशुओं की तरह घसीट कर कारखानों में ले जाया जाता था, जहाँ उनसे 16-16 घंटे काम लिया जाता था बहुत बड़े पैमाने या विरोधियों को हत्या करके देशवासियों के हृदय में ऐसा आतंक बैठा दिया गया कि ये सरकार के विरुद्ध कुछ नहीं बोल सकते है। इसलिए राजनेताओं का ध्यान एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की ओर गया जिसमें मनुष्यों की 'गरिमा' (dignity) और स्वतंत्रता' (liberty) बनी रहे तथा ये उन अधिकारों का उपयोग कर सकें जो न्याय और शांति के आधार है। मानव अधिकारों को सार्वभौम घोषणा की अभिपुष्टि करके सदस्य राष्ट्रों ने यह प्रतिज्ञा की है कि वे इन अधिकारों के प्रति सम्मान जगायेंगे।


2. संसार के अनेक संविधान मानव अधिकारों की पुष्टि करते हैं (Many Constitutions of the World affirm Human Rights) - मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा अपने आप में कोई 'कानून' नहीं है अर्थात् उसके पीछे को बाध्यकारी शक्ति (binding force) नहीं है। परंतु ये अधिकार इसलिए बंधनकारी बन गये हैं क्योंकि दुनिया के अधिकांश देशों ने अपने-अपने संविधान में मौलिक अधिकारों को शामिल करने की कोशिश की। फलस्वरूप, विधानमंडल और कार्यपालिका मनमाने ढंग से मूल अधिकारों का हनन नहीं कर सकते अधिकारों को कम करने या घटाने लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा। लोकतंत्र में सरकारें बदलती हैं। कभी एक दल की सरकार है तो कभी दूसरे दल की। परंतु सरकार किसी दल की भी हो उसे इन अधिकारों के अनुसार ही अपनी नीतियाँ दालनी पड़ेगी। भारत में तो उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में यह कहा कि संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं किया जा सकता जिससे संविधान का मौलिक ढाँचा (basic structure) ही बदल जाए। विख्यात कानूनवेत्ता नानी पालकीवाला (Nani Palkhivala) लिखते हैं कि भारत के जिन राज्यों में कम्युनिस्ट सरकारें रही हैं वहाँ मानव अधिकारों का इसलिए सम्मान किया जा सका क्योंकि भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार पूरी दृढ़ता से संस्थापित हैं।


3. मानव अधिकारों से संबंधित महत्त्वपूर्ण घोषणाएँ, प्रसंविदापत्र और संधियाँ (Many Human Rights Declarations Conventions and Treaties)-1948 से लेकर अब तक कई प्रसविदापत्र तैयार किए गये और कई ऐसी संधियों की गई जिनपर सभी प्रमुख देशों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किये, जैसे कि 'सिविल व राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय संविदा' (International Covenant on Civil and Political Rights) तथा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय संविदा' (International Covenant on Economic Social and Cultural Rights)। हालाँकि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1966 में ही इन प्रसविदापत्रों को स्वीकार कर लिया था, पर इन्हें 1976 में लागू किया गया। इन दोनों प्रसविदापत्रों को अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार विधेयक' (International Bill of Human Rights) का नाम दिया गया, जिसकी 130 से ज्यादा राष्ट्र अभिपुष्टि कर चुके हैं। कई अन्य घोषणाएँ व प्रसविदापत्र इस प्रकार है: प्रजातीय भेदभाव को समाप्त करने वाला प्रसविदापत्र (International Convention on the Elimination of All Forms of Racial Discrimi nation, 1965), स्त्रियों के प्रति भेदभाव को समाप्त करने वाला प्रसविदापत्र (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against Women, 1979) तथा बाल अधिकारों से संबंधित प्रसविदापत्र (Convention on the Rights of the Child, 1989) ।


4. मानव अधिकारों की सुरक्षा और देखभाल करने वाली एजेंसियाँ (Agencies that monitor Human Rights)– विभिन्न देशों में मानव अधिकारों का जो हनन हो रहा है, इसकी जाँच और निगरानी के लिए बहुत से संगठन कार्यरत हैं, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग (UN Human Rights Commission), मानवाधिकार उच्चायुक्त (High Commissioner for Human Rights) तथा मानवाधिकार समिति (Human Rights Committee)। कई देशों ने अपने-अपने मानवाधिकार आयोग स्थापित किए हैं। भारत में 1992 में एक राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया और 1998 में एक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई।


मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई गैरराजनीतिक संगठन क्रियाशील हैं। 1961 में 'एमनेस्टी इंटरनेशनल' (Amnesty International) का गठन किया गया। इसकी स्थापना एक ब्रिटिश वकील पीटर बेनेन्सन (Peter Benenson) ने की थी, जिसकी शाखाएँ विश्व भर में फैली हुई हैं। इसका मुख्य उद्देश्य धार्मिक व राजनीतिक विश्वासों और व्यवहार की वजह से बंदी बनाए गए लोगों को मुक्ति दिलाना है। 1977 का नोबल शांति पुरस्कार (Nobel Prize for Peace) एमनेस्टी इंटरनेशनल को मिला था। भारत में करीब 200 गैरराजनीतिक संगठन मानव अधिकारों की बहाली के लिए कार्य कर रहे हैं, जैसे कि पी. यू. सी. एल. (Peoples Union for Civil Liberties) तथा पी. यू. डी. आर. (Peoples Union for Democratic Rights ) । इन संगठनों ने बहुत से मुद्दे उठाए हैं, जैसे कि बँधुआ मजदूरों, बाल कैदियों और पुलिस हिरासत में रह रहे लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार की घटनाएँ ।


5. स्वर्निणय का अधिकार (Right to Self-determination) - मानव अधिकारों के अंतर्गत यह घोषणा की गई कि “शासन का आधार जनता की इच्छा होगी।”। दूसरे शब्दों में, पराधीन राष्ट्रों को “स्वर्निणय का अधिकार” दिया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने पराधीन राष्ट्रों की मुक्ति के लिए निरंतर संघर्ष किया। राष्ट्र संघ की ट्रस्टीशिप कौंसिल (Trusteeship Council) के जिम्मे 11 ऐसे राष्ट्र रखे गये थे जहाँ पर वहाँ के निवासियों का अपना शासन नहीं था। ये सभी अब या तो स्वतंत्र हो चुके हैं अथवा किसी अन्य स्वंतत्र राज्य का अंग बन गये हैं। स्वाधीनता प्राप्त करने वाला अंतिम राज्य पलाऊ (Palau) है जिस पर जापान ने कब्जा कर लिया था। 1947 में इसका प्रशासन संयुक्त राज्य अमेरिका को सौंपा गया। अक्तूबर 1994 में वह स्वतंत्र गणराज्य बन गया।




मानव अधिकारों की सीमाएँ अथवा आलोचनात्मक समीक्षा (Limitations or a Critique of Human Rights)


मानव अधिकारों के विरोध में मार्क्सवादियों और कई बहुलवादियों ने निम्नलिखित दलीलें पेश की हैं :


1. एक ही मॉडल को सभी देशों पर थोपने का प्रयास (Imposition of a Single Hegemonic Model) - प्रायः यह कहा जाता है कि दुनिया के विभिन्न देशों के बीच इतनी सारी विभिन्नताएँ हैं कि मानव अधिकारों का कोई एक मॉडल उचित नहीं होगा। 1993 के वियना सम्मेलन (Vienna Congress) में चीन के प्रतिनिधि ने यह मुद्दा उठाया कि कम्युनिस्ट सरकारें मानव अधिकारों के पक्ष में हैं, परंतु वे पश्चिम के उदार-व्यक्तिवाद (liberal individualism) के विरुद्ध हैं। वे नहीं चाहतीं कि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में विकासशील व पिछड़े देशों पर जबरन पश्चिम के आदर्श थोपे जाएँ। उन्होंने इसे ‘सांस्कृतिक आधिपत्य' (cultural hegemony) का नाम दिया है। उनका एक तर्क यह भी है कि भूखे बेरोजगार व्यक्ति के लिए विचार या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है।


2. आज के असमान विश्व में शक्तिशाली राष्ट्र ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के निर्धारक बन गये हैं (International politics is being influenced by Dominant Powers in today's Uneven World)-10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव अधिकारों की सुरक्षा का भार औपचारिक रूप से अपने कंधों पर ले लिया। पर इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि संयुक्त राष्ट्र संघ की शक्ति का गुब्बारा फूट चुका है। मार्च 2003 में यह विश्व संगठन इराक पर अमेरिकी हमले को रोकने में सर्वथा विफल रहा। इसलिए हम यह नहीं कर सकते हैं कि मानव अधिकारों को लागू कराने में संयुक्त राष्ट्र संघ सफल होगा या नहीं। पिछड़े और कमजोर राष्ट्रों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ और मानव अधिकार आज भी प्रासंगिक हैं। लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि अमेरिका और उसके साथी, विशेषकर ब्रिटेन, उनकी इस जरूरत को समझें।


3. संसाधनों की कमी है (Want of Resources) - मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में सामाजिक-आर्थिक अधिकारों पर बहुत बल दिया गया है। आलोचकों का कहना है कि इतने संसाधन कैसे जुटाए जाएँ कि हर व्यक्ति को पुष्टिकर भोजन, रहने के लिए निवास स्थान और चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा सकें। इतना कह देने मात्र से काम नहीं चलेगा कि बालकों को ऐसे रोजगारों में न भेजा जाए जो उनकी आयु व शक्ति के अनुकूल न हों। यदि किसी परिवार के पास जीवन निर्वाह के साधन नहीं हैं तो उस परिवार के बच्चों को मेहनत-मजदूरी करनी ही पड़ेगी, चाहे वे रेस्तराँ व ढ़ावे में बर्तन साफ करें या सीसे की फैक्टरी में चूड़ियाँ बनाएँ या गलीचे बनाएँ। इस प्रकार 'सर्वव्यापकता' का दावा अधिकारों को सर्वव्यापी बनाने में कारगर नहीं होगा। पश्चिम के विकसित राष्ट्रों के नागरिक जिन अधिकारों का उपयोग कर रहे हैं, पिछड़े व विकासशील देशों के लिए वे सभी अधिकार काल्पनिक बनकर रह गये हैं।


4. महाविनाश के हथियार तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया (Weapons of Mass Destruction and the Global ization Process) - परमाणु शस्त्रों की होड़ और आर्थिक क्षेत्र में वैश्वीकरण की प्रकिया मानव अधिकारों के लिए एक गंभीर समस्या बन गई है। परमाणु शस्त्रों के संचय का अंतिम परिणाम युद्ध और विनाश है। एक तरह से देखा जाए तो "मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन स्वयं मनुष्य बन गया है" ("the only threat to man is man himself")। परमाणु बमों के प्रयोग का अर्थ है- 'सभी की मौत' (death for all) । इसलिए यह कहा जाता है कि “मनुष्य जाति को चाहिए कि वह युद्धों को समाप्त कर दे, अन्यथा युद्ध स्वयं मानव जाति को मिटा देगा।" जहाँ तक वैश्वीकरण का प्रश्न है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने विकासशील देशों के 80 प्रतिशत बाजार पर कब्जा कर लिया है। अमीर देश व्यापार और कर्ज की प्रतिकूल शर्ते लगाकर गरीब दुनिया को लूट हैं रहे हैं। इससे गरीबी का कुचक्र सदा चलता रहेगा। कहने के लिए सभी राष्ट्र समान हैं और प्रभुसत्ता संपन्न हैं, परंतु राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाएँ असमान होने की वजह से न तो राजनीतिक क्षेत्र में ही समानता संभव है और न मानवाधिकारों के क्षेत्र में ।



मानव अधिकारों का उल्लंघन तथा अधिकारों के लिए चुनौतियाँ (Human Rights Violations and Human Rights Challenges)


दासता, बिना उचित कारण के बंदी बनाना, पुलिस हिरासत में मौत, विचारों को प्रकट करने पर पाबंदियाँ, महिलाओं के प्रति अनुचित व्यवहार, विरोधियों का सफाया, आदि बातें मानव अधिकारों के विरुद्ध हैं। अभी हाल तक दक्षिणी अफ्रीका में खुलेआम रंगभेद की नीति का अनुसरण किया जा रहा था। चीन और पाकिस्तान में मानवाधिकार हनन की बहुत अधिक घटनाएँ हो रही हैं। चीन में विशेषकर तिब्बतवासियों को सताया जा रहा है। ‘एशिया वाच' (Asia Watch) के अनुसार हजारों राजनीतिक कैदी चीन की जेलों में सड़ रहे हैं। चीन की एक चालाकी यह रही है कि चीनी पुरुष जबरन तिब्बती महिलाओं से विवाह रचाते हैं। परिवार बस जाने के बाद तिब्बती महिलाएँ कुछ इस तरह से फंस जाती हैं कि वे तिब्बत की स्वायत्तता जैसे मुद्दों को प्राथमिकता नहीं देतीं। जो दे पाती हैं, उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। चीन में “मनमानी गिरफ्तारी और यातना की घटनाएँ किसी भी समय किसी के साथ हो सकती हैं। चीन की दंड संहिता (penal code) में करीब 70 अपराध ऐसे हैं जिनके लिए मृत्युदंड मिल सकता है। हर साल मृत्युदंड पाने वाले लोगों की सबसे ज्यादा जनसंख्या चीन में है। "


भारत-विभाजन के समय भारत से भागकर पाकिस्तान में बस जाने वाले लोगों और उनकी संतान के साथ आज तक शरणार्थियों जैसा व्यवहार हो रहा है। पाकिस्तान के मानव अधिकार आयोग के सदस्य आजिज ए. सिद्दीकी (Aziz A. Siddique) के अनुसार मानव अधिकारों के हनन की घटनाएँ इतनी ज्यादा और ऐसी कष्टप्रद है कि उनका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान की इस्लामिक विचारधारा परिषद संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त एक निकाय है। परिषद के कुछ ताजा फैसले इस प्रकार हैं : यदि कोई लड़की या महिला अपने 'वली' (पिता या अन्य पुरुष रिश्तेदार) से इजाजत लिए बगैर निकाह (शादी) करती है तो उसे गैरकानूनी माना जाए, कुरान की छपाई में जिस कागज का इस्तेमाल किया गया हो उसे फिर किसी अन्य कार्य के प्रयोग में न लाया जाए तथा जो सरकारी कर्मचारी नमाज अता नहीं करते उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। वहाँ की “प्रांतीय सरकारों की बागडोर मौलवियों व कट्टरपंथी मज़हवी तत्त्वों और उनके सहयोगी दलों के हाथों में आ चुकी हैं। ""भारत में पुलिस हिरासत में मौत, बंधुआ मजदूरी और बाल-मजदूरी जैसी घटनाएँ बढ़ी हैं। इसके अतिरिक्त पिछले करीत 15 वर्षों में आतंकवादियों व नक्सलवादियों द्वारा हजारों निर्दोष लोगों और पुलिस व सेना के अफसरों व सिपाहियों की हत्या की गई। उत्तरी अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के बहुत से देशों में मज़हबी कट्टरता बढ़ी है। बोसनिया (Bosnia), रवांडा (Rawanda), अफगानिस्तान (Afghanistan), बांग्लादेश (Bangladesh) तथा कई अन्य मुल्कों में मानव अधिकारों का जो है हनन हुआ है वह एक घिनावनी कहानी है।

मानव अधिकारों की रक्षा करने वाली एजेंसियाँ अनेक चुनौतियों का सामना कर रही हैं। इनमें से कुछ प्रमुख चुनौतियां इस प्रकार हैं :


प्रथम, मानवीय गरिमा (human dignity) के प्रति सम्मान या आस्था की चुनौती। इसका अर्थ यह है कि मानव अधिकारों के प्रति सम्मान की भावना जगाने की जरूरत है। इसीलिए 1995 से लेकर वर्ष 2004 तक के दशक को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 'मानव अधिकार शिक्षा दशक' (Decade for Human Rights Education) के रूप में मनाने की घोषणा की। लोग यदि अपने अधिकारों के विषय में जानेंगे तो वे उनके लिए संघर्ष करेंगे और सरकार पर यह दबाव डालेंगे कि मानवाधिकारों की रक्षा की जाए।


दूसरे, जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, इतने संसाधन कैसे जुटाए जाएँ कि सभी को सामाजिक-आर्थिक अधिकार सुलभ हो सकें। साधनों के अभाव में अधिकांश अधिकार कोरी कल्पना बनकर रह गये हैं। स्वच्छ वायु, पुष्टिकर भोजन, स्वच्छ पर्यावरण और साफ जल को 'जीवन रक्षा' के लिए जरूरी माना गया है, परंतु इन अधिकारों को लागू कराने के लिए संसाधनों की जरूरत होगी।


तीसरे, अधिकांश विकासशील देश तो अभी तक राजनीतिक स्थायित्व (political stability) की समस्या से ही नहीं उबर पाये हैं। ऐसी स्थिति में अधिकारों को संरक्षण देने की गति स्वाभाविक रूप से बहुत ही धीमी है। सरकारों के उथल-पुथल का क्रम यदि इसी तरह से जारी रहा तो आर्थिक स्थिति खराब होगी ही।


चौथी, महाविनाश के हथियारों से उत्पन्न चुनौती की हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं। इसी के साथ जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा आर्थिक वैश्वीकरण का है। मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए यह जरूरी है कि संसार की बड़ी ताकतें एक ज्यादा संतुलित और न्यायसंगत अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान दे ।


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