google-site-verification=V7DUfmptFdKQ7u3NX46Pf1mdZXw3czed11LESXXzpyo स्वतंत्रता की मार्क्सवादी अवधारणा (MARXIST CONCEPT OF FREEDOM) Skip to main content

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What is the right in the Indian constitution? Or what is a fundamental right? भारतीय संविधान में अधिकार क्या है ? या मौलिक अधिकार क्या है ?

  भारतीय संविधान में अधिकार क्या है   ? या मौलिक अधिकार क्या है ?   दोस्तों आज के युग में हम सबको मालूम होना चाहिए की हमारे अधिकार क्या है , और उनका हम किन किन बातो के लिए उपयोग कर सकते है | जैसा की आप सब जानते है आज कल कितने फ्रॉड और लोगो पर अत्याचार होते है पर फिर भी लोग उनकी शिकायत दर्ज नही करवाते क्यूंकि उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती | आज हम अपने अधिकारों के बारे में जानेगे |   अधिकारों की संख्या आप जानते है की हमारा संविधान हमें छ: मौलिक आधार देता है , हम सबको इन अधिकारों का सही ज्ञान होना चाहिए , तो चलिए हम एक – एक करके अपने अधिकारों के बारे में जानते है |     https://www.edukaj.in/2023/02/what-is-earthquake.html 1.    समानता का अधिकार जैसा की नाम से ही पता चल रहा है समानता का अधिकार मतलब कानून की नजर में चाहे व्यक्ति किसी भी पद पर या उसका कोई भी दर्जा हो कानून की नजर में एक आम व्यक्ति और एक पदाधिकारी व्यक्ति की स्थिति समान होगी | इसे कानून का राज भी कहा जाता है जिसका अर्थ हे कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नही है | सरकारी नौकरियों पर भी यही स

स्वतंत्रता की मार्क्सवादी अवधारणा (MARXIST CONCEPT OF FREEDOM)

 स्वतंत्रता की मार्क्सवादी अवधारणा (MARXIST CONCEPT OF FREEDOM)


https://www.edukaj.in/2023/02/astronomers-succeeded-by-discovering-12.html


मार्क्सवादियों ने स्वतंत्रता के उदारवादी सिद्धांत की कटु आलोचना की है और स्वतंत्रता की एक नवी अवधारणा प्रस्तुत की है, जिसका वर्णन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है:


https://www.edukaj.in/2023/01/today-we-will-know-who-is-first.html



वर्गों में विभाजित समाज में असली स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं है (There cannot be any Genuine Freedom in a Class-divided Society)



स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार क्या है? 

अवश्य पढ़े:-

https://www.edukaj.in/2022/05/various-forms-of-liberty.html




मार्क्सवादी विचारकों ने पूँजीवादी समाज का विश्लेषण करके उसकी असंगतियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया। पूँजीवादी समाज में उत्पादन और वितरण प्रणाली दोषयुक्त होने के कारण सारी संपत्ति पूँजीपतियों के पास एकत्रित हो जाती है। जाम लोगों के पास जीवन निर्वाह करने भर को या उससे भी कम चीजें होती है। इस व्यवस्था में श्रमिकों, किसानों और • सर्वहारावर्ग के कष्टों का कोई अंत नहीं। ऐसी स्थिति में उनकी स्वतंत्रता की सभी बातें निरंयक है। मार्क्सवादियों के अनुसार इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा या अन्य पूंजीवादी देशों के आम नागरिक वास्तविक स्वतंत्रता का उपयोग नहीं कर पाते। जहाँ ज श्रमिकों का प्रश्न है, उनके पास तो पूंजीपतियों को अपना श्रम बेचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। उनके लिए। 'स्वतंत्रता' महज काल्पनिक चीज बनकर रह गई है। वर्गों में विभाजित समाज में आम आदमी जिस स्वतंत्रता का उपभोग करता है उसे मार्क्सवादियों ने स्वतंत्रता की 'बुर्जुआ अवधारणा' (Bourgeois Concept of Freedom) का नाम दिया है। उसकी तुलना में साम्यवादी व्यवस्था में न केवल आर्थिक, बल्कि निजी अधिकार भी सुरक्षित रहते हैं। यहाँ तक कि 'सर्वहारावर्ग की तानाशाही' भी पूंजीवादी देशों के लोकतंत्र से बेहतर है।


https://www.edukaj.in/2023/06/what-is-right-in-indian-constitution-or.html


अलगाव की स्थिति में स्वतंत्रता संभव है ही नहीं (Alienation results in Loss of Freedom)


मार्क्सवादियों ने आधुनिक तकनीकी युग के व्यक्ति को एक ऐसा व्यक्ति माना है जो समाज और प्रकृति से दूर होता जा रहा है। समाज से कटा हुआ यह व्यक्ति भीड़ में भी अकेलापन महससू करता है और इसलिए स्वतंत्रता का उपयोग नहीं कर सकता।



कार्ल मार्क्स की अवधारणा - 


 मार्क्स ने 'अलगाव' या परायेपन को समझाने के लिए चार दलीलें पेश की थीं। पहली बात तो यह है कि जिस वस्तु को मजदूर बना रहे हैं, उस पर उनका कोई अधिकार नहीं है। उल्टा उससे उनकी हानि हो रही है। वे गरीब बनते जा रहे हैं, जबकि पूँजीपति उनके खून-पसीने की कमाई पर फल-फूल रहे हैं। दूसरे, श्रमिक न केवल अपने द्वारा बनाई गई वस्तुओं से अलग-थलग होता जा रहा है, बल्कि वह अपने संगी साथियों से भी कट-सा गया है। कारखानों के मालिक जब बातें कामगारों (workers) को हटाकर उनकी जगह दूसरे लोगों की भरती कर लेते हैं। इसलिए श्रमिक भविष्य के प्रति निराशा से भर उठता है और अपने संगी-साथियों को ही अविश्वास की दृष्टि से देखने लगता है। तीसरे, मनुष्य प्रकृति से भी कट जाता है। जैसे ही वह फैक्टरी में प्रवेश करता है, वह प्रकृति के मोहक दृश्यों से दूर हो जाता है। चौथे, जैसे-जैसे अपनी गुजर-बसर करने की चाहत में व्यक्ति को अपना भी होश नहीं है। यह महत्व मशीन का पुर्जी बनकर रह गया है। साम्यवादी व्यवस्था में ही व्यक्ति 'समाज के प्रति कोई लगाव महसूस कर सकता है।



स्वतंत्रता की अवधारणा क्या है?

अवश्य पढ़े:-

https://www.edukaj.in/2022/05/concept-of-liberty.html




‘परायेपन के विषय में नये वामपंथियों के विचार नवमार्क्सवादियों ने परायेपन' के सिद्धांत का नयी परिस्थितियों के हिसाब से विश्लेषण किया है। उदाहरण के लिए, हरबर्ट मार्क्यूज (H. Marcuse) अपने प्रसिद्ध ग्रंथOne Dimensional Man' (एक आयामी मानक) में लिखता है कि आज के उन्नत औद्योगिक समाज में व्यक्ति पर "अमीरी" (affluence) और उपभोक्ताबाद" (consumerism) का भूत सवार है। तकनीकी विकास के कारण चीजों का बड़ी मात्रा में उत्पादन होने लगा है और किसी हद तक सुख-सुविधाओं का भी विस्तार हुआ है। परंतु सरकारी और निजी औद्योगिक घरानों में लगे हुए नौकरशाह इतने शक्तिशाली बन गये है कि समूचा सामाजिक जीवन विकृति और प्रष्टाचार का शिकार है। उसने एक खास किस्म के दमनकारी व रद्दी जीवन-मूल्यों की रचना की है। यहाँ तक कि विज्ञापनदाताओं द्वारा 'संस्कृति' भी हमें एक मुश्त पैकेज के रूप में मिलने लगी है" (packaged culture)। हमें कैसे गीतच्या संवाद चाहिए, इसका निर्णय विज्ञापनदाता करते हैं, हम नहीं। पर मजेदार बात यह है कि व्यक्ति ने इन जीवन-मूल्यों से समझोता कर लिया है। उसे अपनी पसंद-नापसंद की कतई परवाह नहीं है। इस तरह व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता गया चुका है। उसके व्यक्तित्व का बस एक हो आयाम रह गया है और वह है-ज्यादा से ज्यादा चीजें उपार्जित करना। मार्फ्यूज के अनुसार "लोगों ने यह सोचना बंद कर दिया है कि उत्पादन की कौन सी पद्धति श्रेष्ठ है (पूंजीवादी अथवा समाजवादी): किस किस्म का लोकतंत्र उन्हें चाहिए जिससे कि वे वास्तव में सरकार में भागीदार बन सकें?" उन्हें तो बस इतना पता है कि उन्हें 'ज्यादा' और 'और ज्यादा काम करना है। इस खोई हुई स्वतंत्रता को पुनः स्थापित करने के लिए एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण जरूरी है जो सही अर्थों में आम सहमति पर आधारित हो।


नवमार्क्सवादियों में युर्गेन हेबरमेस (Jurgen Habermas) का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसकी कृति 'वैधता का संकट (Legitimation Crisis) पश्चिम के उन्नत पूँजीवादी समाजों का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। हेबरमेस के अनुसार पूँजीवादी व्यवस्था का सबसे बड़ा अंतर्विरोध यह है कि “उत्पादन प्रक्रिया में तो समूचा समाज लगा हुआ है, पर उसका लाभ कुछ थोड़े से लोगों को मिल रहा है" (social production versus private appropriation)। इसलिए यह व्यवस्था कई तरह के संकटों का सामना कर रही है, जैसे कि आर्थिक संकट (economic crisis), प्रेरणा का संकट (motivation crisis) त वैधता का संकट (legitimation crisis) । आर्थिक संकट इसलिए चूँकि उत्पादन तो बढ़ा है, पर उपभोज्य (consumable) वस्तुओं का अभाव है। दूसरे शब्दों में, ऐसी चीजों का भी धड़ल्ले से उत्पादन हो रहा है जिनका समाज के लिए कोई उपयोग नहीं। 'प्रेरणा के संकट' का अर्थ यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में मजदूरी का ढाँचा ऐसा नहीं होता जो उत्पादन-विस्तार को प्रेरित करता हो। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति 'जनसाधारण की वफादारी' (mass loyalty) का सवाल ही नहीं उठता। हेबरमेस ने इसी को 'वैधता का संकट' कहा है। इन अंतर्विरोधों पर विजय पाने के लिए उसने 'सहभागी लोकतंत्र' (participatory democracy) की सिफारिश की है अर्थात् एक ऐसा लोकतंत्र जिसमें महत्त्वपूर्ण निर्णय सिर्फ शक्तिशाली लोग या संगठित निकाय नहीं, बल्कि आम नागरिक लेते हैं।



स्वतंत्रता और कानून

अवश्य पढ़े:-

https://www.edukaj.in/2022/05/liberty-and-law.html




समाजवादी व्यवस्था में ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता संभव है (Personal Freedom is possible only in a Socialist Society)


मार्क्सवादियों के अनुसार मनुष्य को अपनी दरिद्रता का कारण समझना चाहिए और साथ ही यह भी जानना चाहिए कि दरिद्रता से छुटकारा किस प्रकार संभव है। उदारवादियों ने पूँजीवादी व्यवस्था का समर्थन अर्थशास्त्र के कुछ प्राकृतिक नियों के आधार पर किया है, जैसे कि 'माँग और पूर्ति' का नियम तथा 'आर्थिक प्रतियोगिता' का नियम मार्क्सवादियों ने इन सभ नियमों का खंडन किया और उन्हें प्राकृतिक नियम मानने से इनकार कर दिया। उनके अनुसार व्यक्तिवादियों की सबसे बड़ी भूल यह है कि वे समाज को मात्र 'व्यक्तियों का समूह' मानते हैं। उनका यह मानना कोरा भ्रम है कि एक व्यक्ति के लिए जो ठीक है, उसका सामूहिक परिणाम समाज के लिए भी ठीक होगा। समाज व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं है। यदि व्यक्ति को अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाए तो पता नहीं कितने निरीह और निर्बल लोगों की हत्या हो जाएगी। थियेटा में जब आग लगती है तो सभी व्यक्ति अपनी जान बचाने को निकास द्वार (exit) की ओर दौड़ पड़ते हैं। प्रत्येक को अपने बचाव की परवाह होती है, कोई यह नहीं सोचता कि कमजोर लोग या बच्चे कुचल कर मर जाएँगे। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन भले ही बढ़ गया हो, पर साथ ही लोगों की 'विवशता' और लाचारी भी बढ़ी है। इसलिए हमें उत्पादन की किसी ऐसी वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करना चाहिए जिससे समाज में संतुलन पैदा हो। जब तक उत्पादन और वितरण के साधन समूचे समाज की संपत्ति नहीं बन जाते तब तक न्याय और स्वतंत्रता संभव नहीं। मार्क्स और एंगेल्स लिखते हैं, “समूहवाद में ही व्यक्ति और समाज का हित समाविष्ट है। समष्टि की भलाई में ही व्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है।




पूर्ण स्वतंत्रता केवल राज्यविहीन स्थिति में ही संभव है (Full Liberty is possible only in a Stateless Society)


कार्ल मार्क्स और एंगेल्स के अनुसार राज्य एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग को बलपूर्वक दबाये रखने का साधन है। राज्य का काम पूँजीपतियों की संपत्ति और उनके विशेषाधिकारों की रक्षा करना है। मजेदार बात यह है कि यह सब कुछ लोकतंत्र और जन-अधिकारों (popular rights) की रक्षा के नाम पर किया जाता है। मार्क्स के अनुसार जब तक उत्पादन प्रणाली पर समाज का आधिपत्य नहीं हो जाता तब तक वास्तविक अर्थ में लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकती। इसलिए कम्युनिस्ट क्रांति के बाद क्रांतिकारियों का प्रथम कार्य होगा- "उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण"। इस से शोषण की संभावना समाप्त हो जाएगी और मनुष्य स्वतंत्रता का उपभोग करेगा। अभी भी राज्य बना रहेगा, पर समाज जब वर्गहीन बन जाएगा तो राज्य व सरकार भी मिट जायेंगे। पूर्ण स्वतन्त्रता तो राज्यविहीन स्थिति में ही संभव है। यह मत मार्क्स और एंगेल्स का था। बाद के मार्क्सवादियों ने इस संभावना से इनकार कर दिया कि राज्य का लोप हो जाएगा।



कम्युनिस्ट समाजों में मनुष्य की स्वतंत्रता पर प्रहार


(Attacks on Peoples' Liberties in Communist Societies).


इसमें कोई संदेह नहीं कि मार्क्स और एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत सिर्फ सिद्धांत ही नहीं रहे, बल्कि 'जीवन का एक संपूर्ण दर्शन' (complete philosophy of life) बन गये संसार के अनेक देशों में मार्क्सवादी क्रांति हुई, जिसने यहाँ के आचार-व्यवहार, कला, विज्ञान, राजनीति और अर्थव्यवस्था सभी को बदल दिया। पर जहाँ तक स्वतंत्रता और अधिकारों का प्रश्न है, साम्यवादी देशों के नागरिकों को जो कुछ मिला उसका उन्हें काफी महँगा मूल्य चुकाना पड़ा।


प्रथम, साम्यवादी राज्यों में शिक्षा प्रणाली, कला, विज्ञान और साहित्य सबका उद्देश्य साम्यवादी आदर्शों का प्रचार करना रहा है। फलस्वरूप, इन देशों में भाषण, मुद्रण और प्रकाशन सभी पर राज्य का कड़ा नियंत्रण था। समाजवादी व्यवस्था का विरोध करने वालों को कड़ा दंड दिया जाता था। चीन की साम्यवादी सरकार आज भी राजनीतिक विरोधियों, विशेषकर तिब्बतवासियों के साथ बेरहमी का व्यवहार कर रही है। कुछ वर्ष पहले छात्रों के आंदोलन को उसने बड़ी निर्ममता से कुचल डाला ॥


दूसरे, साम्यवादी देशों में एक ही राजनीतिक दल की प्रधानता देखने को मिलती है। सारी राजनीतिक सक्रियता इसी के माध्यम से गुजरती है। विभिन्न राजनीतिक दल राजनीतिक सत्ता के लिए एक-दूसरे से खुलकर प्रतियोगिता नहीं कर सकते। 


तीसरे, न्यायपालिका पर भी सरकार का कठोर नियंत्रण होता है। मार्क्सवादी देशों में नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी नहीं समझा गया कि न्यायपालिका को सत्तारूढ़ दल व कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त रखा जाए। कम्युनिज्म के पतन से पहले रूस की अदालतें संसद और कार्यपालिका के नियंत्रण में थीं। न्यायाधीश भी उन्हीं लोगों को बनाया जाता था जो कम्युनिस्ट विचारधारा के पक्षधर यानी समर्थक थे।


यह ठीक है कि हर देश की आवश्यकताओं और परंपराओं के कारण सरकार के रूपों में मित्रता जरूर रहेगी। सामाजिक आर्थिक नीतियों में भी कई तरह के अंतर हो सकते हैं, पर स्वतंत्रता का सार 'उदारता' है। रूस में गोर्वाचीफ ने 'खुलेपन' (glasnost) का कार्यक्रम चलाया था। उन्होंने यह कहा कि "नागरिकों का यह अधिकार है कि सार्वजनिक विषयों के संबंध में उन्हें पूरी और ठीक-ठीक सूचना मिले। समाचारपत्रों को चाहिए कि खुलेपन' को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँ।" पर गोर्बाचीफ रूस में मार्क्सवादी समाज के पतन और देश के बिखराव को रोक नहीं सके। रूस, पोलैण्ड या पूर्वी यूरोप में आज भी कम्युनिस्ट पार्टियों महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, पर इन देशों के कम्युनिस्ट नेता अपनी रूढ़िवादी विचारधारा से नाता तोड़ चुके हैं। वे आज बहुदलीय व्यवस्था, विचारों की आजादी और बाजार अर्थव्यवस्था में निष्ठा जता रहे हैं।

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