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What is the right in the Indian constitution? Or what is a fundamental right? भारतीय संविधान में अधिकार क्या है ? या मौलिक अधिकार क्या है ?

  भारतीय संविधान में अधिकार क्या है   ? या मौलिक अधिकार क्या है ?   दोस्तों आज के युग में हम सबको मालूम होना चाहिए की हमारे अधिकार क्या है , और उनका हम किन किन बातो के लिए उपयोग कर सकते है | जैसा की आप सब जानते है आज कल कितने फ्रॉड और लोगो पर अत्याचार होते है पर फिर भी लोग उनकी शिकायत दर्ज नही करवाते क्यूंकि उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती | आज हम अपने अधिकारों के बारे में जानेगे |   अधिकारों की संख्या आप जानते है की हमारा संविधान हमें छ: मौलिक आधार देता है , हम सबको इन अधिकारों का सही ज्ञान होना चाहिए , तो चलिए हम एक – एक करके अपने अधिकारों के बारे में जानते है |     https://www.edukaj.in/2023/02/what-is-earthquake.html 1.    समानता का अधिकार जैसा की नाम से ही पता चल रहा है समानता का अधिकार मतलब कानून की नजर में चाहे व्यक्ति किसी भी पद पर या उसका कोई भी दर्जा हो कानून की नजर में एक आम व्यक्ति और एक पदाधिकारी व्यक्ति की स्थिति समान होगी | इसे कानून का राज भी कहा जाता है जिसका अर्थ हे कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नही है | सरकारी नौकरियों पर भी यही स

संघर्षों की प्रकृति Nature of Conflicts

संघर्षों की प्रकृति

(Nature of Conflicts )




परिचय


संघर्ष एक ऐसा शब्द है, जिसके अनेकों अर्थ हो सकते हैं, जैसे-लड़ाई, वाद-विवाद, युद्ध, असंगति आदि। संघर्ष का शाब्दिक अर्थ है “एक दूसरे से टकराव"। जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों में या किसी समूह या वर्ग में किसी एक ही विषय पर विरोधाभास की स्थिति बन जाती है, तो संघर्ष की उत्पत्ति होती है। ऐसे में वे व्यक्ति अपना लक्ष्य बदलकर या अपना लक्ष्य छोड़कर आपस में समझौता करते हैं। कई बार मध्यस्थता के द्वारा समझौता कराया जाता है। यदि संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाए, तो वह युद्ध का रूप ले सकता है या फिर बड़े झगड़े में परिवर्तित हो सकता है। संघर्ष का एक कारण संसाधनों की अपर्याप्तता या वितरण का दोष माना जा सकता है। संघर्ष किसी भी मुद्दे पर हो किंतु उसे सुलझाना जरूरी होता है, अन्यथा यह किसी बड़ी क्षति का कारण बन सकता है।



संघर्ष का अर्थ


संघर्ष का सामान्य अर्थ होता है-टकराव। अलग-अलग विद्वानों ने संघर्ष की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। कुछ विद्वानों ने संघर्ष को आपसी विरोध, प्रतिद्वंद्विता या आपसी प्रतिरोध की स्थिति कहा है, जिसके अंतर्गत व्यक्तियों की गली-मोहल्ले की आपसी लड़ाइयाँ, दो राष्ट्रों के बीच होने वाले युद्ध तथा टकराव या शीत युद्ध की स्थिति को शामिल किया जाता है। विहेल्म ऑबेर्ट का कहना है कि "संघर्ष की स्थिति की शुरुआत उस समय से होती है, जब दो व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से अपनी प्रतिद्वंद्विता को लेकर संघर्ष करते हैं। " जेस्सी बर्नार्ड ने संघर्ष की स्थिति तब बताई है, जब दो या अधिक पक्ष अपने हितों को पूरा करने के लिए विद्रोह या आपसी प्रतिद्वंद्विता करते हैं। केनेथ बाउलडिंग का मानना है कि "संघर्ष तब उत्पन्न होते हैं, जब किन्हीं दो व्यावहारिक इकाइयों के महत्त्वपूर्ण स्थान एक दूसरे के प्रतिकूल होते हैं।" बाउल्डिंग के मतानुसार दो बातें पता चलती हैं, पहली यह कि पक्षों में सन्निहित प्रतिकूलता या विरोध के बिना भी संघर्ष पैदा हो सकता है। दूसरा यह कि संघर्ष में शामिल पक्षों को संघर्ष की जानकारी होनी चाहिए। असंगति प्रायः तभी पैदा होती है, जब दो या अधिक पक्ष एक ही लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं; जैसे किसी पुरस्कार, पद या शक्ति को पाने के लिए आपस में होड़ करना। संघर्ष को एक गतिशील घटनाक्रम माना जाता है, जिसके अंतर्गत एक अभिकर्त्ता दूसरे अभिकर्ता के कार्यों पर प्रतिक्रिया प्रकट करता है, जिससे आगे की क्रिया का पता चलता है। इसमें संघर्ष के खतरे बढ़ते जाते हैं। एक घटनाक्रम दूसरे का अनुसरण करता है। ऐसी स्थिति में यह कहना मुश्किल हो जाता है कि कौन-सा पक्ष घटना के लिए जिम्मेदार है। संघर्ष दोनों ओर से होते हैं। संघर्ष अभिकर्ता के जीवन को खतरे में डालता है। जब कोई विकल्प या मार्ग नहीं रहता, तभी संघर्ष होता है। संघर्ष के परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में केवल भय और हिंसा ही बढ़ती है। सक्रियता के विश्लेषण के लिए "खेल सिद्धांत" जैसे उपकरण का विकास किया गया है, जिससे पता चलता है कि संघर्ष की स्थिति में सम्मिलित पक्ष कैसा व्यवहार करते हैं। इस प्रकार के विश्लेषण का विकास 1860 के दशक में, पूरब-पश्चिम के संघर्षों के धुव्रीकरण से विकसित हुआ था। इसमें ऐसा विचार था कि यदि एक अभिकर्त्ता स्वयं कोई कार्य शुरू करता है, तो दूसरे उसका अनुसरण कर सकते हैं और इस प्रकार गतिशीलता की दिशा को बदला जा सकता है।




संघर्ष समाधान के उपाय 



संघर्ष समाधान का विकल्प सबसे उत्तम उपाय है। इसमें संबंधित पक्षों का विश्वास जीतने वाली स्वतंत्र प्रक्रियाएं होती है। ये प्रावधान औपचारिक या अनौपचारिक होते हैं, जिनके अंतर्गत पक्ष अपने संघर्ष को खत्म करने का विचार करते हैं और उसके समाधान उन्हें मान्य होते हैं। इसमें न्यायालय, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और चुनाव आदि संसदीय मामलों को निपटाने के लिए बताए गए हैं। आंतरिक मामलों में अपील की संभावनाएं जरूरी होती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह मानकर चला जाता है कि अहिंसात्मक तरीके से गतिशीलता को नियंत्रित किया जाए, जिसमें शांति आंदोलनों के माध्यम से संघर्षों का निपटारा हो सके। इसमें गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) और ऐसे समूह जो समझौते तथा समझ की बात करते हैं, उनको महत्त्व दिया जाता है। इन पक्षों का उद्देश्य हिंसा से नहीं बल्कि शांतिपूर्वक संघर्ष का निपटारा करना होता है, किंतु यह परिप्रेक्ष्य संघर्ष के कारणों को उजागर नहीं कर पाता। संघर्षों का मुख्य कारण क्या होता है? क्या ये व्याप्त असंगति के परिणामस्वरूप होते हैं? क्या ये संघर्षपूर्ण व्यवहारों के कारण होते हैं? यह जानना कठिन है कि संघर्षों का वास्तव में कारण क्या है? 



असंगति पर विजय


सिद्धांत के रूप में सात तरह के ऐसे विशेष उपाय बताए गए हैं, जिनसे सभी पक्ष अपनी असंगति को खत्म कर सकते हैं। पहला उपाय है कि पक्ष अपने इरादे को बदल दें अर्थात अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन लायें, किंतु इसकी संभावना कम रहती है। इससे अन्य  मार्ग भी निकल सकते हैं, जिससे दूसरे पक्ष भी बातचीत कर सकते हैं। इसमें नेतृत्व महत्त्वपूर्ण होता है, किंतु ऐसा भी नहीं है कि किसी भी परिवर्तन के लिए क्रांति का इंतजार किया जाये या क्रांति होने पर ही बदलाव होंगे। वास्तव में नए नेता अलग तरीके से सोचते हैं, इसलिए नए नेतृत्व का अपना महत्त्व होता है। इससे नए बदलाव भी जन्म लेते हैं। आस-पास की दुनिया में हो रहे बदलावों से नीतियुक्त प्राथमिकताओं में भी परिवर्तन संभव होता है।


कम ताकतवर अभिकर्त्ताओं के लिए मुख्य शक्तियों में परिवर्तन कभी-कभी हितकारी भी हो सकता है। संघर्ष तथा विरोध में परिवर्तन से संघर्ष समाधान आसान हो सकता है। आर्थिक संकट होने से प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं। इसी प्रकार और अन्य स्थितियाँ भी हो सकती हैं, जिनमें परिवर्तन आने से प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं और संघर्ष समाधान में आसानी होती है। इसलिए यह जरूरी है कि सम्मिलित पक्ष लगातार यह पता लगाते रहें कि क्या प्राथमिकताओं में बदलावों की कोई संभावना है। दूसरा उपाय बहुत उचित है। इसमें ऐसा कोई स्थान ढूंढा जाता है, जहाँ संसाधनों को बाँटा जा सके। इसे एक समझौते का रूप कहा जा सकता है। इसमें दोनों पक्षों को अपनी प्राथमिकताएँ बदलनी होती हैं। इसमें एक पक्ष का बदलाव दूसरे पक्ष के साथ संबंधित होना चाहिए और बीच में एक ऐसे स्थान पर मिल जाएं, जहां सभी पक्षों का हित हो। ऐसे में यदि क्षेत्रीय विवाद से जुड़ी असंगति है, तो उसे एक विभाजक रेखा खींचकर दो समान भागों में बाँटा जा सकता है। नियोक्ता तथा कार्मिकों के मध्य होने वाले समझौते इसका उदाहरण है, जिसमें दोनों को एक समान हिस्सा देकर एक सही विकल्प पर पहुँचा जाता है।



https://www.edukaj.in/2022/04/important-national-and-international.html




तीसरा उपाय है-घोड़ों का व्यापार। इसमें हरेक का एक निजी मुद्दा होता है तथा दोनों पक्षों को 100 प्रतिशत प्राप्त होता है। इसे समझौते के रूप में माना जा सकता है। इसमें यह विचार रखा जाता है कि 'क' को क्षेत्र तथा 'ख' को क्षेत्र 2 दे दिया जाए। हालांकि दोनों पक्ष क्षेत्र और 2 की माँग करते हैं। इस प्रकार के बँटवारे का यह अर्थ है कि जमीन का कोई भी हिस्सा विशेष नहीं है, और यदि किसी कारण से उपयोगी है, तो वह दोनों के लिए एक समान है। राजनीतिक शक्ति की दशा में इस प्रतियोगिता में 'क' 'ख' से कुछ विषयों में सहायता प्राप्त कर सकता है और उसी प्रकार से 'ख' से 'क' कुछ मामलों में सहायता ले सकता है। इसका तात्पर्य है अपनी पुरानी सोच को बदलकर एक साथ चलना है, जिसे "राष्ट्रीय समझौता" या "ऐतिहासिक समझौता" कहा जाता है।


चौथा उपाय "मिला-जुला या सहभागी नियंत्रण" है। इसमें दोनों पक्ष एक साथ विवादग्रस्त संसाधनों पर शासन करने के लिए सहमत हो जाते हैं। ऐसे में दोनों का संयुक्त रूप से आर्थिक संसाधनों पर स्वामित्व होता है। इसमें बीच का कोई ऐसा मार्ग निकाला जाता है, जिससे दोनों पक्ष लागत लगाएँ और उससे लाभ उठाएँ। इसका एक उदाहरण है-गठबंधन की सरकार बनाना। इस प्रकार के सहयोग में विश्वास की बहुत जरूरत होती है। इसमें पहले से ही सुनिश्चित उपायों के आधार पर सभी पक्ष सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसका अभिप्राय है कि संघर्ष की स्थिति से सफलतापूर्वक निपटा जा चुका है। इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नदियों के पानी के बँटवारे के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों में ऐसी व्यवस्था का अभिप्राय है क्षेत्रीय सद्भावना में बढ़ोत्तरी करना तथा आंतरिक मामलों में यह युक्ति बिखरे हुए समान को एक साथ जोड़ने का काम करती है।


इसका पाँचवाँ उपाय है “दूसरों के लिए अपना नियंत्रण छोड़ना" अर्थात नियंत्रण का बाह्यकरण करना। इसमें प्राथमिक पक्ष यह सहमति देता है कि कोई तीसरा अभिकर्त्ता नियंत्रण करे। इसका उदाहरण है 1990 के दशक को अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों के दौरान वार्ता में प्रमुख स्थान दिया गया था।



https://www.edukaj.in/2022/04/human-rights.html




छठे तरीके के अंतर्गत पक्षों या दो पक्षों द्वारा मध्यस्थता या अन्य कानूनी तरीकों को स्वीकार करना है। इस उपाय में ऊपर दिये गए पाँचों तरीकों में से किसी एक के द्वारा संघर्ष के समाधान का तरीका ढूंढना होता है। समाधान के इस तरीके में जनता की राय लेना शामिल होता है। इस प्रकार के तरीके के उदाहरण में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद प्राधिकरण द्वारा दोनों पक्षों की सहमति से खाड़ी युद्ध के बाद इराक और कुवैत के बीच सीमा रेखा बनाई गई।


संघर्ष समाधान का सातवाँ तरीका है, जिसमें मामले को भविष्य के लिए छोड़ दिया जाता है। इसमें आयोग की नियुक्ति होने के कारण पक्षों को संघर्ष के लिए अतिरिक्त समय मिल जाता है। आयोग की जाँच सामने आने तक राजनीतिक परिस्थिति तथा प्रचलित व्यवहार में पर्याप्त बदलाव आ चुके होते हैं। सारे मुद्दे एक ही समय में सुलझाये नहीं जा सकते, इस बात की बहस की जाती है। दूसरा अवसर दिया जाता है, ताकि हारने वाला अपनी हार को स्वीकार करे या समझौता कर ले। संघर्ष व्यवहारों के प्रतिमान को दर्शाता है। हत्या या बलात्कार एक अभिव्यक्ति हो सकते हैं, संघर्ष नहीं। संघर्ष उत्पन्न होने का कारण संसाधनों की कमी नहीं, बल्कि लालच या स्वार्थ भी हो सकता है। गॉल्युंग ने संघर्ष को एक प्रकार की असंगति माना है। यह वह स्थिति है, जब एक लक्ष्य दूसरे लक्ष्य के रास्ते में बाधा बनता है। गॉल्डंग का कहना है कि जब व्यवहार और प्रवृत्ति संघर्ष से संबंधित होते हैं, तो प्रायः उन्हें नकारात्मक माना जाता है, जो कभी भी अचानक हिंसा में परिवर्तित हो सकते हैं। संघर्ष को एक भ्रामक शब्द कहा जा सकता है। संघर्ष की स्थिति में मुद्दे लगातार चलते रहते हैं और ऐसी स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं, जिससे पक्षों में तनाव व विरोध पैदा होना संभव होता है। संघर्ष का माहौल, परिस्थितियों के सभी कारकों से मिलकर बनता है। गॉल्डंग इसे संघर्ष त्रिकोण कहा हैं।



https://www.edukaj.in/2022/05/marxist-concept-of-freedom.html



संघर्ष त्रिकोण



संघर्ष त्रिकोण की व्याख्या गॉल्ढुंग ने सन 1960 में की थी, जो संघर्ष को समझने में सहायता करता है। इससे पता चलता है कि संघर्ष त्रिकोण के अंदर तीनों कोणों में घूमता है, जिसमें कोण 'क' संघर्ष की प्रवृत्ति को दर्शाता है। 'ख' से संघर्ष के व्यवहार का पता चलता है तथा 'ग' से विरोध या संघर्ष प्रकट होता है। संघर्ष क्रम की शुरुआत व समाप्ति संघर्ष त्रिकोण के किसी भी कोण से हो सकती है। बाद में गॉल्युंग ने 'ग' पर अधिक बल दिया, क्योंकि ज्यादातर उनकी शुरुआत यहीं से होती है। संघर्ष चक्र हमेशा गतिशील रहता है। अतः यह माना जा सकता है कि संघर्ष समाधान, संघर्ष परिवर्तन निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।






संघर्ष एक ऐसी स्थिति है, जिसमें दो या अधिक पक्ष यह मानते हैं कि वे अलग-अलग स्थान पर स्थित हैं तथा उनके लक्ष्य असंगत हैं तथा क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए-इस बात को लेकर उनमें भेदभाव है। इस प्रकार की स्थिति, संघर्ष की स्थिति तो नहीं होती, किंतु इसमें संघर्ष परिवर्तन की क्षमता होती है। संघर्ष प्रवृत्ति से तात्पर्य दो या अधिक पक्षों का उग्र या विद्रोही व्यवहार होना है। इसके अंतर्गत लालच, क्रोध, अधीरता, उबाल, भय, तनाव आदि आते हैं। रॉबर्ट मर्टन ने असंगति की इस स्थिति को अप्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति बताया है। एडम कर्ले ने इस प्रक्रिया को रेखीय क्रम के रूप में परिभाषित किया है। 



संघर्ष : चक्रिक और द्वंद्वात्मक


कार्ल मार्क्स ने संघर्ष को कई भागों में परिभाषित किया है, जिसमें हर भाग एक दूसरे से संबंधित है। यह पूरी परिक्रमा की भाँति विकसित होता है तथा अंत में एक ऐसे समाज की नींव रखता है, जहाँ संघर्ष की समाप्ति हो जाती है। कार्ल मार्क्स का कहना है, "एक व्यक्ति, वर्ग या इकाई तभी बनती है, जब वे दूसरे वर्ग के विरुद्ध लड़ाई करते हैं।" जॉर्ज साईमल का कहना है, “संघर्ष, समूह के विचारों और अलगाव की भावना को सुदृढ़ करके समूहों, समाजों व राष्ट्रों के मध्य एक विभाजक रेखा निर्मित करता है, "संघर्ष की स्थिति सदस्यों को इस हद तक खींचती है कि उन्हें एकसमान ताकत लगानी पड़ती है। "


टाल्काट पारसन के विचार से "संघर्ष एक बुराई या एक बीमारी की भांति है। संघर्ष प्रक्रिया में बहुत सी ताकत व ऊर्जा का प्रयोग होता है, जिससे विकास और प्रगति में बाधा आती है।" सिगमंड फ्रायड के अनुसार, संघर्ष की स्थिति तभी उत्पन्न होती है, जब किसी एक लक्ष्य के लिए मौखिक प्रतीकात्मक या भावनात्मक प्रतिक्रिया देने वाली भावनाएँ, एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करने में असंगत होती हैं। सभी विद्वानों का मानना है कि संघर्ष एक द्वेष भावना के रूप में पनपता है और विद्रोह का रूप लेकर बाहर निकलता है। यह विद्वेष के कारण उत्पन्न तनाव को दूर कर देता है और फिर उन्हें एक साथ जोड़ता है।




https://www.edukaj.in/2022/05/the-best-use-of-leisure.html




 संघर्ष की अपरिहार्यता


शोधकर्ताओं का मत है कि संघर्ष की स्थिति एक स्वाभाविक स्थिति है तथा समाज व सामाजिक संप्रेषण का एक मुख्य गुण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा वह समुदाय में रहता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग पहचान होती है, जिसके कारण वे एक दूसरे से अलग होते हैं। अपनी भिन्नताओं के चलते भी वे समाज में एक साथ रहते हैं। समाज में रहते हुए उनके विचारों में मतभेद दिखाई देता है, जो परस्पर संबंधों में संघर्ष का कारण बनता है। पिछली शताब्दी में औद्योगिकीकरण तथा शहरीकरण जैसी घटनाओं ने लोगों में प्रतिस्पर्धा पैदा की, जिसके परिणामस्वरूप समाज में असमानता की वृद्धि के साथ-साथ विभिन्न वर्गों का उदय हुआ। यह भी संघर्ष का एक बड़ा कारण था। सामाजिक शोध से यह स्पष्ट हुआ है कि मजदूर वर्ग अपनी साधारण आय से अपने परिवार की इच्छाओं को पूरा करने के लिए संघर्ष करते हैं। एक जटिल सामाजिक तंत्र में व्यक्ति हर कदम पर संघर्ष करता है। लोग धर्म, जाति, संप्रदाय, राजनीतिक पहचान और विचारों के नाम पर विवाद करते हैं। राजनीतिक सत्ता में आने के लिए लगातार संघर्ष चलता है। संघर्ष केवल इसी स्तर तक नहीं चलते, बल्कि राष्ट्रीय स्तर व अंतर्राष्ट्रीय पर भी संघर्ष चलते हैं। लोगों के साथ चल रहे संघर्ष के अलावा, भौतिक संसाधनों के लिए भी बराबर संघर्ष चलता है।


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