google-site-verification=V7DUfmptFdKQ7u3NX46Pf1mdZXw3czed11LESXXzpyo PERIAR ON IDENTITY IN HINDI,अस्मिता के संबंध में पेरियार के विचार Skip to main content

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What is the right in the Indian constitution? Or what is a fundamental right? भारतीय संविधान में अधिकार क्या है ? या मौलिक अधिकार क्या है ?

  भारतीय संविधान में अधिकार क्या है   ? या मौलिक अधिकार क्या है ?   दोस्तों आज के युग में हम सबको मालूम होना चाहिए की हमारे अधिकार क्या है , और उनका हम किन किन बातो के लिए उपयोग कर सकते है | जैसा की आप सब जानते है आज कल कितने फ्रॉड और लोगो पर अत्याचार होते है पर फिर भी लोग उनकी शिकायत दर्ज नही करवाते क्यूंकि उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं होती | आज हम अपने अधिकारों के बारे में जानेगे |   अधिकारों की संख्या आप जानते है की हमारा संविधान हमें छ: मौलिक आधार देता है , हम सबको इन अधिकारों का सही ज्ञान होना चाहिए , तो चलिए हम एक – एक करके अपने अधिकारों के बारे में जानते है |     https://www.edukaj.in/2023/02/what-is-earthquake.html 1.    समानता का अधिकार जैसा की नाम से ही पता चल रहा है समानता का अधिकार मतलब कानून की नजर में चाहे व्यक्ति किसी भी पद पर या उसका कोई भी दर्जा हो कानून की नजर में एक आम व्यक्ति और एक पदाधिकारी व्यक्ति की स्थिति समान होगी | इसे कानून का राज भी कहा जाता है जिसका अर्थ हे कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नही है | सरकारी नौकरियों पर भी यही स

PERIAR ON IDENTITY IN HINDI,अस्मिता के संबंध में पेरियार के विचार

अस्मिता के संबंध में पेरियार के विचार

(PERIAR ON IDENTITY)




भारतीय समाज की यह विशेषता है कि इसमें जितना तीव्र 'वर्ग संघर्ष' है, उतना ही तेज, बल्कि उससे कुछ ज्यादा ही, वर्ग संघर्ष' भी है, जिसे प्रायः जाति प्रथा का नाम दिया जाता है। भारत में 'जाति विनाश' अभियान को बहुत जोर-शोर से चलाने वाले नेता रामास्वामी नावकर (1879-1973) हुए, जिन्हें उनके अनुयायी श्रद्धाभाव से 'पेरियार' कहकर बुलाते हैं। तमिल भाषा में पेरियार' शब्द का अर्थ है महापुरुष (Great Man) अथवा 'वयोवृद्ध' (Elder) |





पेरियार का संक्षिप्त जीवन वृत्त (A BRIEF ACCOUNT OF PERIAR'S LIFE)



पेरियार का जन्म तमिलनाडु के कोयंबतूर जिले में सन् 1879 में हुआ। जातिप्रथा, जो देश के लिए बड़ी बातक सिद्ध हुई, दक्षिण भारत में बड़े विकराल रूप में विद्यमान थी। वहाँ बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग रहते थे जिन्हें 'अस्पृश्य और निचली जाति का घोषित किया गया। इन्हें कई नामों से पहचाना जाता था, जैसे शुद्र, पैरिआ (pariah), चाण्डाल, आदि। रामास्वामी का जन्म दलित परिवार में नहीं हुआ। नायकरों को हम दक्षिण भारत की पिछड़ी जातियों के अंतर्गत रख सकते हैं। फिर भी, पग-पग पर उन्हें अपमान का सामना करना पड़ता था।



https://www.edukaj.in/2022/04/important-national-and-international.html



पेरियार ने अपना सार्वजनिक जीवन एक 'कांग्रेसी' के रूप में शुरू किया

(Periyar began his Public Career as a Congresman)



युवावस्था में पेरियार कांग्रेस के साथ जुड़ गये। उस दौर में उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अभियान छेड़ा हुआ था. उनका विश्वास था कि गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस देश की आजादी का सक्षम साधन बन सकती है। उन्होंने 1920 के आंदोलन में भाग लिया। इस समय तक उन्होंने इतनी ख्याति अर्जित कर ली थी कि उन्हें मद्रास प्रांत की कांग्रेस कार्यकारिणी समिति का अध्यक्ष चुना गया। उन दिनों इस प्रांत में दक्षिण भारत के वर्तमान सभी प्रदेश (राज्य) शामिल थे।



महात्मा गांधी से पेरियार ने यह सीखा कि सार्वजनिक जीवन में शोषण और अन्याय का सामना करने के लिए 'सत्याग्रह' एक उपयुक्त प्रणाली है। त्रावणकोण राज्य में पैकम नामक स्थान पर पेरियार ने शूद्रों की मंदिर प्रवेश की माँग का समर्थन किया। वहाँ शूद्रों ने अपनी इस मांग को लेकर सत्याग्रह छेड़ा हुआ था। पेरियार ने सत्याग्रहियों को संबोधित करते हुए आवेश में आकर हिंदू देवी-देवताओं के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया, जिस वजह से उन्हें बंदी बना लिया गया। कुछ समय के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। श्रेमादेवी गुरुकुल में ब्राह्मण छात्र छुआछूत की नीति बरत रहे थे। यहाँ तक कि उन्हें गैर-ब्राह्मण छात्रों में के साथ बैठकर भोजन करने में भी ऐतराज था। पेरियार की पहल पर स्थानीय कांग्रेस समिति ने ऊँच-नीच की प्रथा को अशोभनीय करार देते हुए उसके विरुद्ध एक प्रस्ताव पास किया। परंतु कांग्रेस के स्थानीय ब्राह्मण नेताओं को यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा।



सामाजिक रूढ़िवाद के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया (Raised the Banner of Revolt against Social Conservatism)


कई बड़े कांग्रेसी नेताओं के उच्च जातीय व्यवहार ने पेरियार को बहुत निरुत्साहित किया। अब उन्हें स्वयं गांधी का नेतृत्व भी रास नहीं आ रहा था। गांधी जी 'अस्पृश्यता' को तो अभिशाप मानते थे, पर वर्णव्यवस्था की उन्होंने कभी निंदा नहीं की। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि “वर्ण की रचना पीढ़ी-दर-पीढ़ी के धंधों की बुनियाद पर हुई है। चार धंधे सार्वत्रिक हैं-विद्यादान करना, दुःखी की रक्षा करना, खेती तथा व्यापार और शरीर की मेहनत से सेवा करना । इन्हीं को चलाने के लिए चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) बनाये गये हैं।"" हाँ, रोटी-बेटी की पाबंदियों को गांधी ने भी अनावश्यक बतलाया। उन्होंने तो यहाँ तक कहा, “जो ब्राह्मण शूद्र की लड़की से या शूद्र ब्राह्मण की लड़की से ब्याह करता है, वह वर्णधर्म को नहीं मिटाता ..... अलग-अलग वर्ण के लोग आपस में रोटी-बेटी-व्यवहार रख सकते हैं। 


परिवार महात्मा गांधी की दलीलों से संतुष्ट नहीं थे। निचली जातियों की दुर्दशा के लिए वे केवल वर्णव्यवस्था और ब्राह्मणवाद को दोषी समझते थे। उनकी यह मान्यता थी कि कांग्रेस द्वारा पोषित राष्ट्रवाद "हिन्दुधर्म, ब्राह्मणवाद, हिन्दी भाषा और उच्च जातियों के आधिपत्य पर आधारित है। जब तक वर्णव्यवस्था जीवित है तब तक कोई भी शुद्र अथवा अन्य पिछड़ी जाति का व्यक्ति न तो सम्मान का जीवन बिता सकता है और न देश के भौतिक संसाधनों में ही बराबर का भागीदार बन सकता है।



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द्रविड़ कषगम की संस्थापना और पृथक्तावादी आंदोलन में लग जाना (Founded the Dravida Kazhagam and launched a Separatist Movement) 



पेरियार ने कम्युनिस्ट रूस की यात्रा के बाद कुछ समय तक कम्युनिज्म का अभियान भी चलाया। बाद में उन्होंने तमिलनाडु की जस्टिस पार्टी (Justice Party) से हाथ मिलाया और 1914 में इस पार्टी के साथ मिलकर द्रविड़ कषगम् की स्थापना की। अब उन्होंने स्वतंत्र द्रविडस्तान की मांग की। पेरियार ने द्रविड़ों (दक्षिण भारत के लोगों पर उत्तर भारतीयों के प्रभुत्व और उन पर हिंदी थोपे जाने के विरुद्ध पृथक्तावादी आंदोलन चलाया, जिससे उनकी साख को बड़ा धक्का लगा 1949 में उन्होंने एक 17 वर्षीय कन्या मान्यामाई (Manianmai) से विवाह करने की घोषण की। साथ ही, उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। पार्टी के वरिष्ठ नेता अन्नादुराय ने पेरियार के इस कृत्य की निंदा की और एक अलग पार्टी (द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम) की संस्थापना की।


पेरियार ने देश के स्वाधीनता दिवस' को 'शोक दिवस' का नाम दिया, जिसकी वजह से उन्हें काफी खरी-खोटी बातें सुनने को मिलीं। 1967 में तमिलनाडु में अन्नादुराव के नेतृत्व में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम् (DMK) की सरकार बनी थी, जिसका पेरियार नै समर्थन किया। यह जीवन भर तमिल भाषा और द्रविड़ संस्कृति का गुणगान करते रहे। उनकी छवि एक मूर्तिभंजक' की थी। डा. लोहिया ने पेरियार से मुलाकात की। उनके 'जातिविनाश आंदोलन' की तो डा. लोहिया ने बड़ी प्रशंसा की, परंतु "नायकर के हिंदी विरोधी आंदोलन, गांधी जी की प्रतिमाओं के दहन के उपक्रमों, व्यक्तिगत रूप में कतिपय ब्राह्मणों के बारे में किए गये हिंसाचारों को लेकर अपनी नाराजगी भी व्यक्त की थी।




अस्मिता की तलाश: आत्मसम्मान आंदोलन (SEARCH FOR IDENTITY SELF-RESPECT MOVEMENT)


'अस्मिता' आधुनिक युग की एक विशिष्ट अवधारणा बन गई है। अस्मिता को इस प्रकार परिभाषित किया गया। पहचान की अनुभूति अर्थात इस बात का बोध कि हम कौन हैं और क्या है। 1960 के दशक में अमेरिका के अश्वेत (Blacka) अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे थे।


पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत के विभिन्न हिस्सों में 'दलित आंदोलन की एक बाढ़ सी देखी गई। राष्ट्रीय स्तर पर मात्मा गांधी और डॉ. आम्बेडकर ने सुआछूत की समस्या को उठाया प्रादेशिक स्तर पर भी कई ऐसे कर आए अतिप्रथा के विरोध में किए गये संघर्ष में शामिल थे। महाराष्ट्र में दलितों के एक जागरूक वर्ग ने 'दलित पंधेर' नामक एक... संगठन बनाया। कर्नाटक में 'दलित संघर्ष समिति' (DSS) का गठन किया गया। श्रावणकोर में नारायण गुरु ने इज़ाहकों (Ezahavas) का नेतृत्व किया और केरल में अय्याकली न पुलयों (Palayas) का।



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पेरियार के विचार:-


("मज़हब कुछ नैतिक नियमों (moral rules) का प्रतिपादन करता है, जिससे सामाजिक जीवन सुचारू रूप से चल सके आत्मसम्मान आंदोलन ऐसे नियमों का समर्थन करता है। मज़हब एक ऐसा रास्ता दिखाता है जो व्यक्ति को परमात्मा तक पहुँचने में मदद दे। हमें ऐसे रास्ते को लेकर भी कोई दिक्कत नहीं होगी हमारा झगड़ा तो मजहब के उस स्वरूप से है जो व्यक्ति के 'आत्मसम्मान' (self-dignity) को क्षति पहुँचाए और उसके विकास में रुकावटें पैदा करे। आत्मसम्मान आंदोलन ऐसे मज़हब को जड़ से उखाड़ फेंकने की कोशिश करेगा।"-पेरियार) 



तमिलनाडु में पेरियार द्वारा संचालित आत्मसम्मान आंदोलन (Self-Respect Movement) कई बातों में उपरोक्त आंदोलनों से भिन्न था। पेरियार ने करीब 70 वर्षों तक आत्मसम्मान आंदोलन का नेतृत्व किया और दक्षिण भारतीयों को अपनी नई पहचान बनाने के लिए प्रेरित किया। उन्हें आम लोगों के बीच कार्यरत एक प्रखर बौद्धिक (People's Intellectual) के रूप में याद किया जाता है। पेरियार ने अपने आंदोलन को 'द्रविड राष्ट्रवाद' (Dravidian Nationalism) का नाम दिया और 'द्रविड़ों की स्वतंत्र पहचान' के लिए संघर्ष किया। वह शुद्र भाई-बहनों से कहा करते क उनमें से प्रत्येक की यह सोचना होगा कि मैं शुद्ध क्यों कहता हूँ ? (Whyama Shudra?)। हमारा लक्ष्य सिर्फ रुपया या रोजगार हासिल करना नहीं, हमें तो निदाजनक स्थिति से बाहर निकलना है। द्रविड़ भाइयो हम एक ऐसे समाज का निर्माण करें जिसमें विभीषण न हो।"


हिन्दुधर्म से जुड़ी मान्यताओं और प्रतीकों पर जोरदार प्रहार (Forceful Attack on Assumptions and Symbols Associated with Hinduism)


पेरियार ने अपनी एक लघु पुस्तिका ईश्वर के नाम पर एक प्रांति ( Confusion Called God) में यह बतलाया कि उन्हें 'आत्मसम्मान आंदोलन' क्यों चलाना पड़ा। परिवार के अनुसार, "यह आंदोलन देवी-देवताओं या मजहबों के विरोध में नहीं चलाया गया। आत्मसम्मान आंदोलन के माध्यम से मैंने सिर्फ यह बतलाने का प्रयास किया कि हमारे देशवासियों ने अपना गौरव किस वजह से खोया। उनकी उन्नति के मार्ग में कौन-सी रुकावटें हैं और उन्हें कैसे दूर किया जाए? हाँ, यदि मज़हब या देवी-देवता स्वयं हमारे रास्ते को रुकावटें बन जाएँ तो में यही कहूँगा कि उनसे दूर रहो।


पेरियार ने हिन्दू मज़हब की निम्नलिखित बुराइयों गिनाई ;


 प्रथम, समाज अनगिनत जातियों और उपजातियों में बँट गया। हुआछूत भी जाति व्यवस्था की ही उपज है। परिवार ने यह कहा, "शूद्र बने रहकर जीने में हमें सज्जित होना चाहिए। हम नहीं चाहेंगे कि हमारी संतान 'शूद्र' कहलाएँ।"


दूसरे, वर्णव्यवस्था और शुद्रों का वर्णन वेदों, पुराणों इतिहास और अन्य धर्मशास्त्रों में भी मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इन धर्मग्रंथों को मिटाये बिना जात-पौत से छुटकारा संभव नहीं है।


 तीसरे, ऊँच-नीच के समर्थन में कर्मफल की दलील दी जाती है अर्थात् निचली जाति में जन्म के लिए पिछले जन्म में किए गये पाप जिम्मेदार हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि इस जन्म में तो निचली जातियों का उद्धार संभव है ही नहीं।


चौथे, यह कैसा मज़हब है जिसमें असंख्य देवी-देवता पाए जाते हैं। यहाँ तक कि गाय, बैल, बंदर, वृक्ष, पौधों और पत्वरी को भी भगवान् (God) मानकर पूजा जाता है। पेरियार पूछते हैं, "हिंदुओं को इतने सारे देवी-देवताओं की जरूरत किस लिए पड़ी ।


• पाँचवें, यह कैसी विडम्बना है कि पक्षी, जानवर और कीड़े-मकोड़े जिन्हें अविवेकशील प्राणी माना जाता है ऊँच-नीच की भावना से ग्रस्त नहीं है, जबकि मनुष्य जिन्हें 'विवेकशील' (rational) कहा जाता है जातपात की जकड़न में उलझ गये।


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 उपरोक्त दलीलों के आधार पर पेरियार ने हिन्दुधर्म और ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक जबर्दस्त अभियान चलाया। उन्होंने स्वयं को 'नास्तिक' (Atheist) नहीं कहा। उनकी यह मान्यता थी कि "लोग मजहब का सहारा अवश्य दूढ़ते हैं" (people can not live without a religion)। उन्होंने ईसाइयत, इस्लाम, सिख धर्म और बौद्ध धर्म का तुलनात्मक विश्लेषण किया और अपने अनुयायियों को एक ऐसे मज़हब को अंगीकार करने की सलाह दी जो ऊँच-नीच के भेदभावों से ऊपर हो, सिर्फ एक निराकार भगवान् (Formless God) की पूजा पर बल देता हो तथा अपने अनुयायियों को "शांति, एकता, विनम्रता, समर्पण और बंधुता का पाठ पढ़ाये।


द्रविड़ अस्मिता का आर्थिक पहलू लोगों को दीनता से मुक्ति दिलाना (Economic Aspect of Dravidian Identity: Emancipation of Mankind)


पेरियार ने अस्मिता के सिर्फ सामाजिक-धार्मिक पक्ष को ही उजागर नहीं किया। उनके अनुसार, "द्रविड़ अस्मिता का एक आर्थिक पक्ष भी है। समाज के सारे घृणित, गंदे और मेहनत वाले कामों का बोझ निचली जातियों पर आ पड़ा, पर बदले में उन्हें क्या मिला? सभी सुविधाएँ, अवकाश के क्षण और सुख-साधन उच्च जातियों को ही उपलब्ध हैं, जबकि शूहों और अन्य पिछड़ी जातियों को सिर्फ सेवा और कष्ट का जीवन बिताना पड़ता है। आश्चर्य की बात यह है कि इस सब के लए मात्र भाग्य' को जिम्मेदार मान लिया गया है अर्थात् दुर्दशा और तंगहाली का जीवन जीना दलितों के भाग्य में लिखा है।


समाज का एक छोटा सा वर्ग निरंतर अपनी संपत्ति के विस्तार में लगा है, वह शूद्रों पर शासन करता है, जबकि निचली जाति के लोग मुश्किल से अपनी गुजर-बसर कर पाते हैं। उच्च जाति वालों ने उन्हें 'बंधुआ मजदूर' बनाकर रखा हुआ है। वे सिर्फ आर्थिक संसाधनों का उपभोग ही नहीं करते, उनकी बरबादी भी कर रहे हैं। देवी-देवताओं की साज-सजा, पूजा-अर्चना, धार्मिक जुलूसों और त्योहारों (मकरविलक्कू, पूरम, चित्तिरे व कार्तिग-दीपम् जैसे त्योहारों) पर करोड़ों रुपया पानी की तरह वहा दिया जाता है। मृत व्यक्तियों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध और पिंडदान किया जाता है। पेरियार के अनुसार, इन सभी विधि-विधानों का उद्देश्य ब्राह्मणवाद को जिंदा रखना है। इनके बहाने पुरोहित पुजारियों ने बहुत अधिक आनंद का जीवन जिया, जबकि दलित और निचली जातियों के लोग भूख की चिंता से धुले जा रहे थे।




अस्मिता का राजनीतिक प्रशासनिक पहलू पृथक और आनुपातिक प्रतिनिधित्व की माँग (Politico-Administrative Aspect of Their Identity: A Demand for Separate and Proportional Representation)



1909 के मार्ले-मिंटो सुधारों के अंतर्गत मुसलमानों को पहली बार सांप्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया। उन्हें केंद्रीय विधान परिषद् और प्रांतीय विधानसभाओं में अलग से प्रतिनिधित्व दिया गया। 1909 में जो सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति शुरू की गई, 1919 के भारतीय शासन अधिनियम द्वारा उसे और ज्यादा विस्तृत कर दिया गया। अब न केवल मुसलमानों को, बल्कि सिखों, ईसाइयों तथा एंग्लो-इंडियन समुदाय के लोगों को भी अलग प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। इस प्रकार इन संप्रदायों के लोग विधान मंडलों के लिए अपने प्रतिनिधि अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों से चुनते थे अभिप्राय यह है कि मुसलमान केवल मुसलमानों को अथवा ईसाई केवल ईसाइयों को वोट देते थे।


महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस के अन्य सभी नेता सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के विरुद्ध थे। जवाहरलाल नेहरू ने यह कहा कि अंग्रेजों की नीति एक वर्ग को दूसरे वर्ग से और एक जाति को दूसरी जाति से भिड़ाये रखने की है, ताकि सभी जातियाँ प्रभावहीन बनकर रह जाएँ। परंतु पेरिवार ने पृथक् प्रतिनिधित्व की रीति का समर्थन किया। उनकी दलील यह थी कि पृथक् प्रतिनिधित्व के बिना समाज के पिछड़े वर्गों, विशेषकर गैर-ब्राह्मणों को राजनीतिक प्रक्रियाओं, विधान मंडलों, सरकारी नौकरियों, अदालतों और शिक्षण संस्थाओं में उनका उचित हिस्सा नहीं मिलेगा।


सारांश (Sum up)-इसमें कोई संदेह नहीं कि जातीय भेदभावों को मिटाने और निचली जातियों की नई पहचान बनाने में पेरियार जरूर कामयाब रहे। छुआछूत को दूर करने के लिए भी उन्होंने अपनी आवाज़ बुलंद की। पेरियार से मिली विरास को अन्नादुरई और करुणानिधि ने आगे बढ़ाने का प्रयास किया अन्नादुरई कई बातों को लेकर पेरियार से असहमत थे। पेरिया ने निचली जातियों के पतन के लिए सिर्फ ब्राह्मणवाद को दोषी ठहराया, किंतु अन्नादुरई की मान्यता थी कि उनकी दुर्दशा लिए और भी कई बातें जिम्मेदार हैं, जैसे कि ब्रिटिश शासकों की औपनिवेशिक नीतियाँ (colonial policies) और कांग्रेस पा ' उत्तर भारत की ऊंची जातियों का प्रभुत्व पृथक्तावादी आंदोलन चलाने और 'स्वतंत्र द्रविडस्तान' की माँग ने पेरियार 'राष्ट्रद्रोह' का लेबल लगा दिया। फिर भी, उन्हें समाज-सुधार, तमिल भाषा और तमिल संस्कृति के लिए लड़ने वाले 'शूर्व योद्धा' के रूप में याद किया जाएगा।



https://www.edukaj.in/2022/03/what-is-fitness.html




निष्कर्ष


‘जाति विनाश' अभियान को बहुत जोर-शोर से चलाने वाले नेता रामास्वामी नायकर (1879-1973) को उनके अनुयायी श्रद्धाभाव से पेरियार कहकर बुलाते हैं।


पेरियार का संक्षिप्त जीवन-वृत्त-पेरियार का जन्म तमिलनाडु के कोयंबतूर जिले में सन् 1879 में हुआ। युवावस्था में पेरियार कांग्रेस के साथ जुड़ गये। परंतु कई कांग्रेसी नेताओं के उच्चजातीय व्यवहार ने पेरियार को बहुत निरुत्साहित किया। उन्हें स्वयं गांधी का नेतृत्व भी रास नहीं आ रहा था, क्योंकि गांधी ने वर्णव्यवस्था की कभी निंदा नहीं की।


पेरियार ने द्रविड़ कषगम की संस्थापना की और द्रविड़ों पर उत्तर भारतीयों के प्रभुत्व के विरोध में पृथक्तावादी आंदोलन चलाया। वह जीवन भर तमिल भाषा और द्रविड़ संस्कृति का गुणगान करते रहे।


अस्मिता की तलाश-पेरियार ने करीब 70 वर्षों तक 'आत्मसम्मान आंदोलन' (Self-Respect Movement) का नेतृत्व किया। उन्होंने अपने आंदोलन को 'द्रविड़ राष्ट्रवाद' का नाम दिया। पेरियार ने हिन्दु धर्म से जुड़ी मान्यताओं और प्रतीकों (जात-पाँत, छुआछूत, वेद, पुराण और देवी-देवताओं) पर जोरदार प्रहार किया।


पेरियार के अनुसार, “द्रविड़ अस्मिता का एक आर्थिक पहलू भी है।" सारी सुविधाएँ और सुख-साधन उच्च जातियों को ही उपलब्ध हैं, जबकि निचली जाति के लोगों को सिर्फ सेवा और कष्ट का जीवन बिताना पड़ता है। देवी-देवताओं की साज-सज्जा, धार्मिक जुलूसों और धार्मिक त्योहारों पर करोड़ों रुपया पानी की तरह बहा दिया जाता है, जबकि शूद्र भूखे मर रहे हैं।


सारांश-पेरियार ने जातीय भेदभावों को मिटाने का प्रयास किया। परंतु 'पृथक्तावादी आंदोलन' ने उन पर राष्ट्रविरोधी होने का लेबल लगा दिया। फिर भी, उन्हें तमिल भाषा और संस्कृति के लिए लड़ने वाले “लड़ाकू नेता" के रूप में याद किया जाएगा।


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