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आधुनिक युग में शक्तियों का प्रयोग किया जा रहा है,पर्यावरण के संदर्भ में इसकी विवेचना कीजिए।
आधुनिक युग में जब आणविक शक्तियों का प्रयोग किया जा रहा है, पर्यावरण के संदर्भ में इसकी विवेचना कीजिए।
वैज्ञानिक खोजों के द्वारा इस प्रकार की उपलब्धियां भी हो जाती है। अपने को अहिंसा और शान्ति का पुजारी कहने वाले अमरीकी राष्ट्रपति टू मैन ने जापान को धराशायी करने के लिए 6 ट्र अगस्त, 1945 को प्रातः 8.15 बजे हिरोशिमा पर बम डालकर मानवता पर एक घिनौना अत्याचार किया। इसके बाद 9 अगस्त, 1945 को प्रातः ग्यारह बजे अपने पूर्व कृत्य की पुनरावृत्ति करके अपने किए गए अविवेकपूर्ण कार्य को दोहराया। इन विध्वंसात्मक कार्यों का तात्कालिक प्रभाव तो भयंकर रूप से विनाशकारी था ही, उसके बाद पैदा होने वाली संततियां अपंग, अपूर्ण तथा विकृत पैदा हुई तथा अनेक प्रकार के रोग फैले। इसी प्रकार चर्नोबिल दुर्घटना भी नाभिकीय विकिरणों से उत्पन्न खतरों पर प्रकाश डालती है। यह दुर्घटना 26 अप्रैल, 1986 को यूक्रेन (यू.एस.एस.आर.) में घटी थी। इस दुर्घटना में चार नाभिकीय रिएक्टरों में से एक रिएक्टर आवश्यकता से अधिक गर्म हो जाने के कारण पिघल गया था। जिसके फलस्वरूप इस रिएक्टर में रेडियोधर्मी सामग्री आस-पास के लम्बे-चौड़े क्षेत्र में फैल गई थी। यहां क कि रेडियोधर्मी धूल पश्चिमीर यूरोप तक पहुंच गई थी। नाभिकीय शक्ति के उत्पादन इतिहास में यह सबसे बड़ी दुर्घटना थी। इस दुर्घटना में 31 व्यक्तियों की मृत्यु हुई तथा जनसंख्या का एक भाग इससे प्रभावित हुआ। अनुमान लगाया गया है कि अगले 70 वर्षों में इस दुर्घटना के कारण कैंसर होने से 60,000 से अधिक मौतें होंगी।
https://www.edukaj.in/2022/02/adulterated-food-essay.html
विकिरणों के प्रभावों को जानने के लिए हमें उनके हानिकारक तथा लाभकर, दोनों ही प्रभावों को जानने की आवश्यकता है। यंहा विकिरण के इतिहास, उसके प्रकार, उत्पत्ति, उसके दुष्प्रभावों तथा शन्ति में उपयोग का अध्ययन करेंगे। अनायास उच्च नाभकीय विस्फोट जीवों और वनस्पतियों को सहज नष्ट करने की क्षमता रखता है। इसके भयावह परिणामों से विश्व शक्तियां भी थर्रा रही हैं। रेडियो धार्मिता की 600 आर. मात्रा मनुष्य के लिए प्राण घातक है। 200 आर मात्र कुप्रभाव डालती है, जान लेवा नहीं होती। कम मात्रा में रेडियो धार्मिता के कारण होने वाले विभिन्न दुष्प्रभाव इस प्रकार हैं
1. त्वरित प्रभाव - रेडियोधर्मिता शरीर पर तुरन्त प्रभाव डालती है जिससे शारीरिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। इन्हें उग्र रेडियोधर्मी व्याधियां कहा जाता है। इन व्याधियों में जी मिचलाना, उल्टी होना, सिर के बाल उड़ना, दस्त, मुखीय घाव, बुखार, अभिन्न अंगों से रक्त स्राव, रक्त में लिम्फोसारइट्स कणिकाओं की कमी आना तथा शारीरिक परिक्लान्ति (थकावट एवं हतोत्साह) आदि प्रकट होते हैं। 2. दीर्घकालिक प्रभाव - बार-बार रेडियोधर्मी पदार्थों के
सम्पर्क में आने पर शरीर पर निम्नलिखित दीर्घकालीन प्रभाव पड़ते
1. अस्थि मज्जा का क्षरण;
2. एप्लास्टिक रक्ताल्पता.
3. चर्म कोप,
4. रक्त कैन्सर,
5. अपरिपक्व मोतिया बिन्द
6. आयु में कमी, तथा
7. कैन्सर।
https://www.edukaj.in/2022/02/take-health-insurance-and-save-your.html
फसलों की उन्नत जातियाँ- उन्नत प्रजातियों में जिन गुणों की अपेक्षा की जाती है वे गुण हैं-कम समय में अधिक उत्पादन दें, कीटों का प्रभाव कम-से-कम हो, रोग मुक्त हो तथा रोग फसलों को कम-से-कम हानि पहुँचाएं, उर्वरक खाद तथा पानी का कम-से-कम उपयोग करके अधिकतम उत्पादन प्रदान करने की योग्यता रखती हों, खाद्य प्रदार्थों का पौष्टिक गुण अधिक हो तथा उनका स्वाद, रंग और गंध उत्तम हो, खाद्यान्न तथा फलों के पौधों का आकार छोटा होते हुए तथा उनकी उत्पादकता अधिक हो, चारे वाली फसलों के पौधों का आकार बड़ा हो तथा उनकी पत्तियां व तना अधिक रसदार हो तथा चारे में पौष्टिकता, विशेषकर प्रोटीन की मात्रा अधिक हो। उन्नत प्रजातियों के विकास के लिए वैज्ञानिक कई तकनीकों का प्रयोग करते रहे हैं जैसे-चयन प्रवेशन, संकरीकरण, पोलीप्लायडी तथा उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) इन पद्धतियों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं।
उत्परिवर्तन के द्वारा विशिष्ट गुणों वाली उन्नत प्रजातियों के तैयार करने की विधि कम समय में अपेक्षाकृत अधिक कार्य करती है। कृत्रिम उत्परिवर्तन पैदा करने के लिए रासायनिक पदार्थो (जैसे-रोसीनपथीन, कोलचीसिन, कैलीडोनिन होन सल्फानिलेमाइड, सल्फापारडीन, सल्फागुआलिडिन, सल्फाथाइजोल,एल्फानेपथेलिन तथा बैंजीन आदि) का उपयोग किया जाता रहा है। ये पदार्थ कोशिका की संरचना में उसके क्रोमोसोम में परिवर्तन कर देते हैं जिससे कोशिका के गुण परिवर्तित हो जाते हैं। इन परिवर्तनों की चर्चा हम अभी विकिरण और भावी संतति शीर्षक में कर आए। हैं।
https://www.edukaj.in/2020/09/blog-post.html
ये परिवर्तन जीव में क्षति उत्पन्न करते हैं। इन क्षतियों में से कोई या कुछ क्षतियां इस प्रकार की भी हो सकती हैं जो कि पौधे के गुणों में अपेक्षित परिवर्तन लाने वाली हों। उत्परिवर्तनों के लिए विकिरणों के उपयोग में कोबाल्ट-60 का प्रयोग भारत में 1960 के दशक से किया जाता रहा है, जिसके परिणामस्वरूप गेहूं, टमाटर, कपास, तम्बाकू तथा गुलदाउदी आदि की कई एक महत्त्वपूर्ण प्रजातियां विकसित हो गई हैं। पादक रोगों पर विजय प्राप्त करने के लिए मटर में पाउडरी-मिल ड्यू. जई की सीडलिंग-ब्लाइट, गेहूं की रस्ट रोधी किस्में, मूंगफली का टिक्का रोग की प्रतिरोधी किस्में तैयार की गई हैं।
एक्स-रे-से होने वाली हानिया चिकित्सा प्रौद्योगिकी तथा सुरक्षा के क्षेत्र में एक्स-रे की उपयोगिता निरन्तर बढ़ रही है। रोगों के निदान के लिए एक्स-रे की आवश्यकता अब अपरिहार्य बन चुकी है। परन्तु सामान्य रोगों के लिए भी अब एक्स-रे का प्रयोग बहुतायत से किया जाने लगा है, यह एक विचारणीय समस्या है। एक अनुमान के अनुसार 35,000 से अधिक एक्स-रे संयंत्र हैं। प्रायः इन संयंत्रों का प्रयोग अब बिना पूरी सतर्कता बरते हुए किया जा रहा था। सन् 1962 से परमाणु ऊर्जा अधिनिमय लागू है। इस अधिनियम के अन्तर्गत कारावास तथा आर्थिक दण्ड दोनों का ही प्रावधान किया गया है। इस अधिनियम की धारा 24, 15 व 26 में आवश्यक निर्देश दिए गए हैं। एक्स-रे के बार-बार उपयोग से शरीर की कोशिकाएं नष्ट होती हैं और अंत में वह स्थान कैंसरग्रस्त भी हो सकता है। विदित हुआ है कि एक्सरे का अधिक उपयोग करने से मोतियाबिन्द तथा त्वचा को हानि पहुंचने के अतिरिक्त आनुवंशिक रोगों से गर्भस्थ शिशु भी प्रभावित होते हैं जन्म के बाद ऐसे 'शिशुओं में आनुवांशिक विकास होता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ता चला जाता है। एक्स-रे फोटो की अपेक्षा अधिक हानि स्क्रीनिंग से होती है। इसमें एक्स-रे फोटो की अपेक्षा विकिरण की 100 गुनी' अधिक मात्रा सहनी होती है। गर्भवती महिलाओं का स्क्रीनिंग तो उसी अवस्था में कराया जाए जबकि कोई अन्य विकल्प ही न हो। अधिनियम 1962 के अनुसार एक्स-रे कक्ष का आकार 25 वर्ग मीटर से कम नहीं होना चाहिए। अधिकतर व्यावसायिक संगठनों ने इस नियम की खुलकर अवहेलना की हुई है। इस सुरक्षा नियम की अवहेलना करने से रेडियोग्राफर तथा तकनीशियनों की दोहरी मार सहनी पड़ती है। इसलिए यह आवश्यक है कि सुरक्षा नियमों का पालन, अत्यन्त कठोरता से किया जाए ताकि नासमझ जनता और तकनीशियनों को एक्स-रे से होने वाली हानियों को बचाया जा उसके, ताकि मानव समाज रुन्तेजन का आभारी रह सके तथा रोगो से लड़ने के लिए इस उत्तम अस्त्र की महत्ता भी बनी रहे। रेडियो धर्मिता-मानव इतना असंयमी एवं बेपरवाह हो गया कि वह कचरा भूपटल एवं समुद्र पर ही नहीं फेंक रहा है, उसने अंतरिक्ष को भी नहीं छोड़ा है। अन्तरिक्ष यात्रियों के फालतू सामान, हैं। नासा 100 से अधिक राकेट जो कि सेटेलाइट को आगे भेजते हैं-नष्ट होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटकर अन्तरिक्ष में फैले हुए (नेशनल एयरोनोटिक्स एण्ड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) के वैज्ञानिक 1989 में यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि अन्तरिक्ष केवल कचरे का ढेर ही नहीं बल्कि रेडियोधर्मी भी है। अन्तरिक्ष में यह कचरा तथा रेडियोधर्मिता, अन्तरिक्ष यानों, गुप्तचर सेटेलाइट, न्यूक्लियर कोर, संचार सेटेलाइट, उपग्रहों, अन्तरिक्ष कैप्सूल्स आदि के माध्यम से होती है। अन्तरिक्ष में भेजे गए अधिकांश उपकरण यद्यपि मानव जाति की सेवा के लिए हैं लेकिन इन्हें अन्तरिक्ष में वापिस लाना भी भेजने वाले संगठनों का ही कार्य है। ताकि अन्तरक्षि अपवित्र न हो, प्रवित्र ही बना रहे।
https://www.edukaj.in/2022/08/blog-post.html
निष्कर्ष - परमाणु तथा हाइड्रोजन बम सम्पूर्ण सृष्टि को विनष्ट
करने की क्षमता रखते हैं। यदि उसी परमाणु शक्ति का उपयोग हम
मानवीय कल्याण के लिए करने लगें तो विश्व को भुखमरी,
अल्प-पोषण, रोग तथा व्याधियों से मुक्त किया जा सकता है।
आवश्यकता इस बात की है कि मानव जाति का नैतिक विकास इस स्तर तक किया जाए कि वह विश्व कल्याण की ही सोचे, उसके
विध्वंस की नहीं। परमाणु शक्ति का विरोध नहीं किया जाना
ही चाहिए, बल्कि परमाणु शक्ति के शांति के लिए ही उपयोग करने
में की मनोवृत्ति का विकास किया जाना चाहिए। इसी में विश्व कल्याण की भावना निहित है।
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